________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 33 ज्ञानं ज्ञानांतराद्वेद्यं स्वात्मज्ञप्तिविरोधतः। प्रमेयत्वाद्यथा कुंभ इत्यप्यश्लीलभाषितम् // 53 // ज्ञानांतरं यदा ज्ञानादन्यस्मात्तेन विद्यते। तदानवस्थितिप्राप्तेरन्यथा ह्यविनिश्चयात् // 54 // अर्थज्ञानस्य विज्ञानं नाज्ञातमवबोधकम् / ज्ञापकत्वाद्यथा लिंगं लिंगिनो नान्यथा स्थितिः॥५५॥ ____ न ह्यर्थज्ञानस्य विज्ञानं परिच्छेदकं कारकं येनाज्ञातमपि ज्ञानांतरेण तस्य ज्ञापकं स्यात् अनवस्थापरिहारादिति चिंतितप्रायम्॥ प्रधानपरिणामत्वात् सर्वं ज्ञानमचेतनम् / सुखक्ष्मादिवदित्येके प्रतीतेरपलापिनः // 56 // चेतनात्मतया वित्तेरात्मवत्सर्वदा धियः। प्रधानपरिणामत्वासिद्धेश्शेति निरूपणात् // 57 // तत्स्वार्थव्यवसायात्मज्ञानं चेतनमंजसा। सम्यगित्यधिकाराच्च संमत्यादिकभेदभृत् // 58 // ज्ञान स्व और पर दोनों का जानता है। नैयायिकों का कहना है कि ज्ञान दूसरे ज्ञान से जानने योग्य है क्योंकि स्व के द्वारा स्व की ज्ञप्ति का विरोध है तथा ज्ञान प्रमेय है, जो प्रमेय होता है वह दूसरे ज्ञान के द्वारा जाना जाता है। जैसे-घट। आचार्य कहते हैं कि यह भी कहना ठीक नहीं है क्योंकि जब दूसरे ज्ञान से प्रथम ज्ञान का संवेदन होना माना जाएगा तब तो दूसरे ज्ञान का भी तीसरे ज्ञान से वेदन माना जायेगा। इस प्रकार, संवेदन ज्ञानों की आकांक्षा बढ़ने से अनवस्था दोष की प्राप्ति होती है अन्यथा यानी अनवस्था दोष के निवारणार्थ तीसरे, चौथे आदि ज्ञानों से विशेष रूप से निश्चय भी नहीं हो सकता // 53-54 // -__अज्ञात विज्ञान अर्थज्ञान का बोधक नहीं होता है, क्योंकि वह ज्ञापक हेतु है, अर्थात् ज्ञात धूम हेतु अग्निसाध्य का ज्ञापक है। सभी ज्ञापक ज्ञात होते हुए ही अन्य ज्ञेयों के ज्ञापक होते हैं जैसे लिंगी के लिंग। अन्य प्रकार से व्यवस्था नहीं है अतः अनवस्था दोष हो जाने से ज्ञान दूसरे ज्ञानों से वेद्य नहीं है, किन्तु स्वसंवेद्य है, ऐसा जानना चाहिए॥५५॥ अर्थज्ञान को जानने वाला दूसरा विज्ञान कोई कारक हेतु तो नहीं है, जिससे कि तीसरे आदि ज्ञानों से ज्ञात नहीं होता हुआ भी पहिले अर्थज्ञान का ज्ञापक हो जाता और नैयायिकों के यहाँ आने वाली अनवस्था का परिहार हो जाता किन्तु ज्ञान, शब्द, लिंग आदि तो ज्ञापक हेतु हैं। कारक हेतुओं को जानने की आवश्यकता नहीं है। अर्थात् कारक हेतु अज्ञात होकर भी कार्य निमग्न रहते हैं। किन्तु ज्ञापक हेतु ज्ञानान्तर से ज्ञात हुए ही ज्ञापक हो सकते हैं / इनको हम पूर्व प्रकरणों में कह चुके हैं। ___सम्पूर्णज्ञान अचेतन है, सत्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की साम्य अवस्थारूप प्रकृति का परिणामपना होने से। सुख, दुःख, मोह, पृथ्वी, जल आदि के समान ऐसा कहने वाले भी प्रतीति का अपलाप कर रहे हैं, क्योंकि आत्मा के समान ज्ञान का सदा चेतनपने से संवेदन हो रहा है अतः प्रधान का परिणामपना ज्ञान में असिद्ध है (और असिद्ध हेत्वाभास साध्य को सिद्ध नहीं कर पाता है। वस्तुत: ज्ञान तो आत्मा का परिणाम है ज्ञान और चैतन्य एक ही है) इन बातों का हम पहिले सूत्र के प्रकरण में निरूपण कर चुके हैं। अपने और पर अर्थ को निश्चय स्वरूप से जानने वाला ज्ञान साक्षात् चेतनस्वरूप है। तथा सम्यक् (उस पद) का अधिकार चले आने के कारण सम्यक् मति, सम्यक् श्रुत आदि भेदों को धारण करने वाला ज्ञान है। अर्थात् अपने और अर्थ को एक ही समय में जानने वाले मति आदि पाँच चैतन्य रूप ज्ञान हैं॥५६५७-५८॥