________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 32 कर्मत्वेन परिच्छित्तेरभावो ह्यात्मनो यथा। फलज्ञानस्य तद्वच्चेत्कुतस्तस्य समक्षता // 49 // तत्कर्मत्वपरिच्छित्तौ फलज्ञानांतरं भवेत् / तत्राप्येवमतो न स्यादवस्थानं क्वचित्सदा // 50 // फलत्वेन फलज्ञाने प्रतीते चेत्समक्षता / करणत्वेन तद्ज्ञाने कर्तृत्वेनात्मनीष्यताम् // 51 // तथा च न परोक्षत्वमात्मनो न परोक्षता। करणात्मनि विज्ञाने फलज्ञानत्ववेदिनः // 52 // साक्षात्करणज्ञानस्य करणत्वेनात्मनि स्वकर्तृत्वेन प्रतीतावपि न प्रत्यक्षता, फलज्ञानस्य फलत्वेन प्रतीतौ प्रत्यक्षमिति मतं व्याहतं / ततः स्वरूपेण स्पष्टप्रतिभासमानत्वात् करणज्ञानमात्मा वा प्रत्यक्षः स्याद्वादिनां सिद्धः फलज्ञानवत्॥ जाएगा तब उस फलज्ञान का प्रत्यक्षपना कैसे सिद्ध होगा? यदि फलज्ञान प्रत्यक्ष होता है इसलिए उस फलज्ञान में भी कर्मपने की परिच्छित्ति हो जाती है तब तो अर्थ के समान कर्मस्वरूप फलज्ञान का अधिगम होने रूप दूसरा फलज्ञान मानना पड़ेगा और वह फलज्ञान भी प्रत्यक्ष तभी हो सकेगा जबकि उस फलज्ञान को प्रमिति का कर्म बनाया जायेगा। इस प्रकार वहाँ भी आकांक्षा शान्त न होने से कहीं दूर चलकर भी सदा अवस्थान नहीं होगा अतः अनवस्था दोष आयेगा // 48-49-50 // ___ यदि अनवस्था के निवारण करने के लिए फलज्ञान की कर्मत्व से प्रतीति को न मानकर फलज्ञान के फलपने से ही प्रतीति हो जाने पर प्रत्यक्षता मान ली जाती है तो करणज्ञान की करणपने से प्रतीति हो जाने पर उसका प्रत्यक्ष होना मान लेना चाहिए तथा कर्त्तापन से आत्मा की प्रतीति हो जाने पर आत्मा का भी प्रत्यक्ष होना प्रभाकरों को इष्ट कर लेना चाहिए अर्थात् जो कर्म है, उसका ही प्रत्यक्ष होता है, ऐसा एकान्त नहीं है / / 51 // तथा आत्मा में परोक्षपना घटित नहीं होता है और करणस्वरूप प्रमाणज्ञान में भी परोक्षपना नहीं आता है। फलज्ञान का प्रत्यक्षवेदन मानने वाले प्रभाकर को आत्मा और करणज्ञान का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना अभीष्ट करना चाहिए, कोरा आग्रह करना व्यर्थ है॥५२॥ .. ___ करणज्ञान की करणपने से और आत्मा की कर्त्तापन से साक्षात् विशद प्रतीति होने पर भी उन करणज्ञान और आत्मा का प्रत्यक्ष होना नहीं माना जाता है किन्तु फलज्ञान की फलपने से प्रतीति होने पर भी उसका प्रत्यक्ष होना पक्षपातवश मान लिया जाता है। इस प्रकार प्रभाकरों का मत व्याघात दोषयुक्त है अर्थात् प्रमिति क्रिया का कर्मपना न होने से यदि प्रमाणात्मक करणज्ञान और आत्मा प्रमाता का प्रत्यक्ष नहीं माना जाता तो फलज्ञान को भी प्रत्यक्ष होना नहीं माना जाना चाहिए, यदि फलज्ञान को प्रत्यक्ष मानते हो तो करणज्ञान और आत्मा को भी प्रत्यक्ष मानना चाहिए अन्यथा व्याघात दोष आता है। फलज्ञान के समान अपने स्वरूप का ही स्पष्ट प्रतिभास होने के कारण करणज्ञान अथवा आत्मा स्याद्वादियों के यहाँ प्रत्यक्षस्वरूप सिद्ध है (वही प्रभाकर मीमांसकों को अनुकरणीय है)