________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 31 कर्मत्वेनापरिच्छित्तिरप्रत्यक्षं यदीष्यते। ज्ञानं तदा परो न स्यादध्यक्षस्तत एव ते॥४६॥ यदि पुनरात्मा कर्तृत्वेनेव कर्मत्वेनापि प्रतिभासतां विरोधाभावादेव / ततः प्रत्यक्षमस्तु अर्थो अनंशत्वान्न ज्ञानं कारणं कर्म च विरोधादित्याकूतं, तत एवात्मा कर्ता कर्म च माभूदित्यप्रत्यक्ष एव स्यात् / / तथास्त्विति मतं ध्वस्तप्रायं न पुनरस्य ते। स्वविज्ञानं ततोध्यक्षमात्मवदवतिष्ठते // 47 // अप्रत्यक्षः पुरुष इति मतं प्रायेणोपयोगात्मकात्मप्रकरणे निरस्तमिति नेह पुनर्निरस्यते / ततः प्रत्यक्ष एव कथंचिदात्माभ्युपगंतव्यः। तद्विज्ञानं प्रत्यक्षमिति व्यवस्थाश्रेयसी प्रतीत्यनतिक्रमात् / / प्रत्यक्षं स्वफलज्ञानं करणं ज्ञानमन्यथा। इति प्राभाकरी दृष्टिः स्वेष्टव्याघातकारिणी // 48 // प्रमिति के कर्मपने से ज्ञान पदार्थ की परिच्छित्ति न होने से ही यदि ज्ञान को अप्रत्यक्ष माना जाता है,तब तो तुम्हारे मत में कर्मपने से भिन्न कर्ता आत्मा का प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं हो सकेगा॥४६॥ यदि फिर कर्त्तापन के समान कर्मपने से भी आत्मा का प्रतिभास हो जाता है तो उसमें कोई विरोध नहीं है। विरोधाभाव से आत्मा का प्रत्यक्ष अर्थ हो जाता है। किन्तु ज्ञान तो निरंश पदार्थ है,अत: विरोध होने के कारण वह ज्ञान करण और कर्म दोनों नहीं हो सकता है। जो अर्थ कर्म है वह करण नहीं है और जो ज्ञान करण है वह कर्म नहीं हो सकता है। मीमांसकों ऐसी चेष्टा होने पर जैन कहते हैं कि इस प्रकार से आत्मा भी कर्ता और कर्म न हो सकेंगे क्योंकि निरंश आत्मा में कर्त्तापन और कर्मपन दो विरुद्ध धर्म नहीं ठहर सकते हैं अतः आत्मा का भी प्रत्यक्षज्ञान नहीं हो सकेगा, अप्रत्यक्ष ही रहेगा। . प्रभाकर मीमांसक को आत्मा का प्रत्यक्ष न होना इष्ट है अत: वे कहते हैं कि आत्मा अप्रत्यक्ष ही बनी रहो। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह मत भी प्रायः पूर्व प्रकरणों में खण्डित कर दिया गया है। यहाँ फिर इसका निराकरण नहीं किया गया है। अतः आत्मा के समान उस आत्मा का विज्ञान भी प्रत्यक्षरूप से अवस्थित है अर्थात् सभी ज्ञान स्व को जानने में प्रत्यक्षरूप हैं॥४७॥ आत्मा प्रत्यक्ष नहीं है। इस प्रकार के मत को उपयोग स्वरूप आत्मा की सिद्धि करने वाले आद्य प्रकरण में निरस्त कर चुके हैं अत: फिर उस आत्मा के अप्रत्यक्षपने का निरास नहीं करते हैं। भावार्थ : पहिले सूत्र के प्रकरण में “कर्तृरूपतयावित्तेः" से लेकर “कथंचिदुपयोगात्मा” इस वार्त्तिक तक मीमांसकों के प्रति आत्मा का प्रत्यक्ष होना सिद्ध कर दिया गया है अतः कथंचित् प्रत्यक्षरूप ही आत्मा स्वीकार करना चाहिए। उसका विज्ञानरूप परिणाम भी प्रत्यक्ष है। इस प्रकार व्यवस्था करना श्रेष्ठ है क्योंकि इसमें प्रतीतियों का अतिक्रमण नहीं है। प्रमिति के जनक ज्ञान को करणज्ञान कहते हैं और उस करणज्ञान से उत्पन्न हुए अधिगम को फलज्ञान मानते हैं। आत्मा में उत्पन्न फलज्ञान का स्वयं प्रत्यक्ष हो जाता है किन्तु करणज्ञान दूसरे प्रकार का है अर्थात् करणज्ञान का प्रत्यक्ष नहीं होता है। इस प्रकार प्रभाकरों का दर्शन तो अपने ही इष्टतत्त्वों का व्याघात करने वाला है क्योंकि जैसे आत्मा में कर्मपने से परिच्छित्ति होने का अभाव है, अत: आत्मा का प्रत्यक्ष होना नहीं माना है वैसे ही आत्मा के फलज्ञान की भी यदि कर्मपने से ज्ञप्ति नहीं होती है, ऐसा माना