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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 388 अत्र प्रचक्षते केचिच्छ्रुतं शब्दानुयोजनात्। तत्पूर्वनियमाद्युक्तं नान्यथेष्टविरोधतः॥८५॥ शब्दानुयोजनादेव श्रुतं हि यदि कथ्यते। तदा श्रोत्रमतिज्ञानं न स्यान्नान्यमतौ भवम् // 86 // यद्यपेक्षवचस्तेषां श्रुतं सांव्यवहारिकं। स्वेष्टस्य बाधनं न स्यादिति संप्रतिपद्यते // 87 // न सोस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते / इत्येकांतं निराकर्तुं तथोक्तं तैरिहेति वा // 8 ज्ञानमाद्यं स्मृति: संज्ञा चिंता चाभिनिबोधिकं। प्राग्नामसंसृतं शेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात् // 89 // अत्राकलंकदेवाः प्राहुः "ज्ञानमाद्यं स्मृति: संज्ञा चिंता चाभिनिबोधिकं / प्राङ्नामयोजनाच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनात्।” इति तत्रेदं विचार्यते मतिज्ञानादाद्यादाभिनिबोधिकपर्यंताच्छेषं श्रुतं शब्दानुयोजनादेवेत्यवधारणं श्रुतमेव शब्दानुयोजनादिति वा ? यदि श्रुतमेव शब्दानुयोजनादिति पूर्वनियमस्तदा न कश्चिद्विरोध: भावार्थ : शब्द की योजना से ही यदि श्रुत समझा जाएगा, तब तो श्रोत्र मतिपूर्वक ही श्रुत होगा। चक्षु आदि मतिपूर्वक श्रुत नहीं हो सकेगा किन्तु यह बात जैन सिद्धान्त के विरुद्ध पड़ती है। शब्द की योजना से ही श्रुत होता है। इस प्रकार उन अकलंकदेव के वचन यदि समीचीन व्यावहारिक अपेक्षा करके कहे गए हैं, तब तो अपने इष्ट सिद्धान्त में बाधा नहीं आ सकती, क्योंकि अन्य इन्द्रियजन्य मतिज्ञानों को निमित्त कारण मानकर उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान जाना जा रहा है अतः श्रुत में शब्द योजना का नियम करना आवश्यक नहीं है। अवाच्य पदार्थों के अनेक श्रुतज्ञान होते हैं। स्पर्शन आदि इन्द्रियों से अर्थों का मतिज्ञान कर अनन्त अर्थान्तरों का ज्ञान होता है वह सब श्रुत ही है।८५-५६-८७॥ ___ लोक में ऐसा कोई भी ज्ञान नहीं है जो कि शब्द के अनुगमन के बिना ही हो जाता हो। (सभी ज्ञान और ज्ञेय शब्द में अनुविद्ध होते हैं)। इस प्रकार के शब्दैकान्त का निराकरण करने के लिए अकलंकदेव ने इस प्रकार शब्द की योजना के पूर्व मतिज्ञान होता है और पीछे शब्द की योजना लगा देने से श्रुतज्ञान हो जाता है - ऐसा कहा है, सो ठीक ही है। अर्थात् इन्द्रियों द्वारा स्पर्श, रस, रूप, गन्ध, शब्द, सुख आदि के ज्ञान तो मतिज्ञान हैं और यह उससे कोमल है, 'यह उससे अधिक मीठा है'- इत्यादि शब्द योजना कर देने पर होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है। श्री अकलंकदेव का यही अभिप्राय है कि शब्द की योजना से पूर्व अवग्रह आदि तथा स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध- ये सब ज्ञान मतिज्ञान स्वरूप हैं किन्तु शब्द की अनुयोजना कर देने से नाम करके आश्रित हो जाने पर वे अवग्रहादिज्ञान श्रुतज्ञानरूप हो जाते हैं।।८८-८९॥ __इस प्रकरण में श्री अकलंकदेव ने कहा है कि नाम योजना से पूर्व स्मृति, संज्ञा, चिंता और अनुमान ज्ञान परोक्ष मतिज्ञानरूप है और शब्दों की योजना कर देने से तो वे ज्ञान परोक्ष श्रुतस्वरूप हो जाते हैं। इस प्रकार अकलंकदेव के उस व्याख्यान में यह विचार किया गया है कि मतिशब्द को आदि लेकर अभिनिबोधपर्यन्त व्यवस्थितज्ञान पूर्व में मतिज्ञान है। शेष पीछे शब्द की योजना कर देने से ही श्रुतज्ञान हो जाता है। इस प्रकार एव लगाकर अवधारण किया जाता है? अथवा श्रुत ही शब्दों की अनुयोजना से होता है, इस प्रकार एव लगाकर अवधारण किया जाता है?
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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