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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 387 प्रोक्तभेदप्रभेदं तच्छुतमेव हि तदृढं / प्रामाण्यमात्मसात्कुर्यादिति नशिंतयात्र किम् // 84 // तदेवं श्रुतस्यापौरुषेयतैकांतमपाकृत्य कथंचिदपौरुषेयत्वेपि चोदनायाः प्रामाण्यसाधनासंभवं विभाव्य स्याद्वादस्य च सुनिश्चितासंभवद्बाधकत्वं प्रामाण्यसाधनं व्यवस्थाप्य सर्वथैकांतानां तदसंभवं भगवत्समंतभद्राचार्यन्यायाद्भावाद्ये कांतनिराकरणप्रवणादावेद्य वक्ष्यमाणाच्च न्यायात्संक्षेपतः प्रवचनप्रामाण्यदाढय॑मवधार्य तत्र निश्चितं नामात्मसात्कृत्य संप्रति श्रुतस्वरूपप्रतिपादकमकलंकग्रंथमनुवादपुरस्सरं विचारयति; इस सूत्र में दो, अनेक, बारह भेद-प्रभेदों से युक्त श्रुत ही कहा गया है और वह श्रुत ही दृढ़प्रमाणपने को अपने अधीन कर सकेगा। इस प्रकार अब यहाँ हमको अधिक चिन्ता करने से क्या प्रयोजन है? // 84 // इस प्रकार श्रुत की मीमांसकों द्वारा रचित अपौरुषेयता के एकान्त का खण्डन कर और कथंचित् विधि लिङन्त वेदवाक्यों के अपौरुषेयपना होते हुए भी उनमें प्रामाण्य की सिद्धि के असम्भव का विचार कर तथा स्याद्वादसिद्धान्त के ही प्रमाणपने की वस्तुभूत साधन से निश्चित की गयी बाधकों की असम्भवता को व्यवस्थापित कर एवं च सर्वथा एकान्तवादों को उस प्रामाण्य के असम्भव का भाव, अभाव, नित्यपन, अनित्यपन आदि एकान्तों के निराकरण करने में प्रवीण भगवान श्री समन्तभद्राचार्य के न्याय से निवेदन कर और भविष्य में समन्तभद्र की शिक्षानुसार कहे जाने वाले न्याय से संक्षेप में यथार्थ प्रवचन के प्रमाणपन की दृढ़ता का निर्णय कराकर उसमें निश्चितपने को अपने अधीन कर, अब इस समय श्रुत के स्वरूप को प्रतिपादन करने वाले श्री अकलंकाचार्य के ग्रन्थ का अनुवादपूर्वक विचार करते हैं। भावार्थ : यहाँ तक श्रुत की अपौरुषेयता का खण्डन किया गया है। वेद को अपौरुषेय मानने पर भी मेघध्वनि आदि के समान प्रमाणपने की सिद्धि होना असम्भव है। यहाँ कोई कहते हैं कि शब्द की योजना लग जाने से वह ज्ञान श्रुत हो जाता है। इस पर दो विकल्प उठते हैं कि शब्द की योजना कर देने से श्रुत ही होता है? अथवा श्रुत शब्द की अनुयोजना से श्रुत होता है? श्रुत ही शब्द की योजना से होता है, इस प्रकार पहला नियम करने से तो श्री अकलंकदेव का कहना युक्तिपूर्ण है। कोई विरोध नहीं है, क्योंकि शब्द की योजना करने के पीछे जो कोई वाच्य अर्थ होता है, वह सब श्रुतज्ञान है। यदि अन्यथा (शब्द की अनुयोजना से ही श्रुत होता है ऐसी) अवधारणा की जाएगी, तब तो इष्टसिद्धान्त से विरोध आएगा, क्योंकि श्रुतज्ञान के यदि शब्द की अनुयोजना को श्रुतपना कहा जाएगा, तब तो श्रोत्र इन्द्रियजन्य ज्ञान मतिज्ञान नहीं हो सकेगा परन्तु शब्द के श्रावणप्रत्यक्ष को श्रोत्र मतिज्ञान कहते हैं। उसमें शब्द की योजना लग जाने से वह श्रुतज्ञान हो जाएगा। अथवा ज्ञान में काला है, नीला है - आदि शब्दों की योजना से यदि श्रुतपना व्यवस्थित किया जाएगा तो श्रोत्र से अन्य चक्षु, रसना, घ्राण आदि इन्द्रियजन्य मतिज्ञानों को निमित्त पाकर उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान नहीं हो सकता।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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