________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 389 शब्दसंसृष्टज्ञानस्याश्रुतज्ञानत्वव्यवच्छेदात्। अथ शब्दानुयोजनादेव श्रुतमिति नियमस्तदा श्रोत्रमतिपूर्वकमेव श्रुतं न चक्षुरादिमतिपूर्वकमिति सिद्धांतविरोध: स्यात् / सांव्यवहारिकं शाब्दं ज्ञानं श्रुतमित्यपेक्षया तथा नियमे तु नेष्टबाधास्ति चक्षुरादिमतिपूर्वकस्यापि श्रुतस्य परमार्थतोभ्युपगमात् स्वसमयसंप्रतिपत्तेः। अथवा “न सोस्ति प्रत्ययो लोके यः शब्दानुगमादृते। अनुविद्धमिवाभाति सर्वं शब्दे प्रतिष्ठितं // " इत्येकांतं निराकर्तुं प्राग्नामयोजनादाद्यमिष्टं न तु तन्नामसंसृष्टमिति व्याख्यानमाकलंकमनुसतव्यं / तथा सति यदाह पर: “वाग्रूपता यदि “श्रुतम् शब्दानुयोजनात्” यहाँ श्रुत ही शब्द की अनुयोजना से होता है। इस प्रकार प्रथम विधेयदल में एवकार द्वारा नियम किया जाएगा, तब तो श्री अकलंकदेव के व्याख्यान से कोई विरोध नहीं है क्योंकि शब्द के साथ संसर्ग को प्राप्त ज्ञान के श्रुत से भिन्न अश्रुतज्ञान का उसी प्रकार अवधारण करने से व्यवच्छेद होना सम्भव है। भावार्थ : शब्द की योजना से जो ज्ञान होगा वह श्रुत ही होगा। श्रुतभिन्न किसी मतिज्ञान, अवधि, मनःपर्यय या केवलज्ञान स्वरूप नहीं हो सकता है। यदि शब्द की अनुयोजना से ही श्रुत होता है, इस प्रकार नियम किया जायेगा तब तो श्रोत्र इन्द्रियजन्य मतिज्ञानस्वरूप निमित्त से ही श्रुतज्ञान हो सकेगा। चक्षु, रसना आदि इन्द्रियों से जन्य मतिज्ञानों को निमित्त कारण मानकर श्रुतज्ञान नहीं हो सकेगा, किन्तु रसना आदि इन्द्रियों से परम्परया तथा अन्य प्रकारों से भी अनेक अवाच्य अर्थों के श्रुतज्ञान जगत् में प्रसिद्ध हैं अतः उक्त प्रकार नियम करने पर सिद्धान्त से विरोध आता है। उपदेश देना, सुनना या शास्त्र को पढ़ना, बाँचना, आगमगम्य प्रमेयों को युक्तियों से समझाना आदि समीचीन व्यवहार में शब्दजन्यज्ञान सभी श्रुत हैं। इस अपेक्षा करके यदि शब्दयोजना से ही श्रुत है, इस प्रकार नियम किया जायेगा, तब तो इष्ट सिद्धान्त में कोई बाधा नहीं आती है, क्योंकि चक्षु आदि से उत्पन्न हुए मतिज्ञान को पूर्ववर्ती कारण मानकर उत्पन्न श्रुतों को परमार्थरूप से श्री अकलंकदेव ने स्वीकार कर लिया है। इस प्रकार अपने सिद्धान्त की समीचीन प्रतिपत्ति हो जाती है। अथवा, “जगत् में ऐसा कोई भी ज्ञान नहीं है, जो शब्द के अनुगमन बिना ही हो जाता हो। सम्पूर्ण पदार्थ शब्द में अनुविद्ध हुए के समान प्रतिष्ठित हो रहे हैं।" इस प्रकार शब्द के एकान्त का निराकरण करने के लिए नामयोजना के पहले तो आदिम मतिज्ञान इष्ट किया गया है किन्तु नाम के संसर्ग से युक्त वह ज्ञान मतिज्ञान नहीं है, किन्तु श्रुत है, इस प्रकार श्री अकलंकदेव द्वारा कहे गए व्याख्यान का श्रद्धापूर्वक अनुकरण करना चाहिए और उस प्रकार होने पर यानी शब्दों के संसर्ग से रहित मतिज्ञान की सिद्धि हो जाने पर यह मन्तव्य भी उस शब्दैकान्तवादी का निराकृत कर दिया जाता है। . जो अन्य मतावलम्बी शब्दाद्वैतवादी कहता है - कि “सर्वदा नित्य रहने वाला शब्दस्वरूपपना यदि ज्ञानों में से उछालकर दूर कर दिया जाएगा, तब तो ज्ञान का प्रकाश ही प्रकाशित नहीं हो सकेगा, क्योंकि वह शब्द स्वरूपपना ही तो ज्ञान में अनेक