________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 382 वेत्ति सा प्रत्यभिज्ञेति प्रायशो विनिवेदितम् / दृष्टत्वदृश्यमानत्वे रूपे पूर्वापरे न चेत् // 58 // भावस्य प्रत्यभिज्ञानं न स्यात्तत्राश्वशृंगवत् / तदा नित्यात्मकः शब्दः प्रत्यभिज्ञानतो यथा // 59 / / देवदत्तादिरित्यस्तु विरुद्धो हेतुरीरितः। दर्शनस्य परार्थत्वादित्यपि परदर्शितः // 60 // विरुद्धो हेतुरित्येवं शब्दकत्वप्रसाधने। ततोऽकृतकता सिद्धेरभावान्नयशक्तितः॥६१॥ वेदस्य प्रथमोध्येता कर्तेति मतिपूर्वतः। पदवाक्यात्मकत्वाच्च भारतादिवदन्यथा // 2 // का अयोग है क्योंकि उसमें विरोध दोष आता है। अर्थात् कूटस्थ तो जैसा का तैसा ही रहेगा, रोमाग्रमात्र भी पलट नहीं सकता है। पूर्व में यदि प्रत्यभिज्ञान का विषय नहीं था, तो प्रत्यभिज्ञान होने पर भी प्रत्यभिज्ञान द्वारा ज्ञेय नहीं हो सकता है। पहिले देखा जा चुकापन और अब देखा जा रहापन, ये परिवर्तित धर्म कूटस्थ में नहीं टिक सकते हैं। वह दृष्ट होगा तो दृष्ट ही रहेगा और यदि दृश्यमान हो गया तो सदा दृश्यमान ही बना रहेगा। पूर्व काल में देखे हुए पदार्थ की पीछे वर्तमान में देखे जा रहे पदार्थ के साथ एकता को जो ज्ञान जानता है, वह प्रत्यभिज्ञान है। इस प्रकार प्रायः कई बार हम पूर्व में विशेषरूप से निवेदन कर चुके हैं अतः कथंचित् पूर्व, उत्तर अवस्थाओं को थोड़ा पलटते हुए कालांतरस्थायी पदार्थ में प्रत्यभिज्ञान होना संभव है॥५६-५७॥ वैदिक शब्दों की पूर्व काल में दृष्टता और वर्तमान में दृश्यमानपना ये दो स्वरूप कोई पहिले पीछे के नहीं हैं। अर्थात् ये तो केवल औपाधिक भाव हैं अतः शब्द की कूटस्थनित्यता का बालाग्र भी टूट नहीं सकता। इस प्रकार मीमांसकों के कहने पर तो घोड़े के सींग समान किसी भी पदार्थ का वहाँ प्रत्यभिज्ञान नहीं हो सकेगा। जिस प्रकार शब्द प्रत्यभिज्ञान होने से अनित्यात्मक सिद्ध हो जाता है, उसी प्रकार देवदत्त, जिनदत्त, आकाश आदि भी प्रत्यभिज्ञायमान हेतु से नित्य, अनित्य आत्मक सिद्ध हो सकेंगे। इस प्रकार मीमांसकों का प्रत्यभिज्ञायमानत्व हेतु विरुद्ध हेत्वाभास कहा गया है। ऐसा समझना चाहिए // 58-59 // वाच्य अर्थ का बोध कराने के लिए बोले गये शब्द तो दूसरों के हितार्थ ही होते हैं। इस प्रकार शब्द स्वरूप दर्शन का परार्थपना हो जाने से शब्द का एकपना साधने में दिया गया “दर्शनस्य परार्थत्व" यह दूसरों का दिखलाया गया हेतु भी विरुद्ध हेत्वाभास है। अर्थात् शब्द के सादृश्य को लेकर वाक्य का अर्थबोध किया जा सकता है। अत: सर्वथा नित्यपन इस अभीष्ट साध्य से विरुद्ध कथंचित् नित्य, अनित्यपन के साथ व्याप्ति रखने वाला होने से उक्त हेतु विरुद्ध हेत्वाभास है॥६०॥ __अत: नय या युक्तियों की शक्ति से वेद के अकृत्रिमपने की सिद्धि का अभाव हो जाने से वेद पौरुषेय सिद्ध हो जाता है। मानस मतिज्ञान या उसके भी पूर्ववर्ती विद्वानों के शास्त्र श्रवण रूप मतिज्ञान को पूर्ववर्ती कारण मानकर उत्पन्न होने से, भारत, भागवतपुराण आदि ग्रन्थों के समान सर्वप्रथम वेद को पढ़ने वाला विद्वान् ही वेद का कर्ता है। प्रथम अध्येता ही वेद का कर्ता है - पद, वाक्य, आत्मकपना होने से, जैसे कि महाभारत, मनुस्मृति आदि ग्रन्थ सकर्तृक हैं, उसी प्रकार वेद का प्रथम अध्येता ही वेद का कर्ता है।