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________________ . तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 381 इति संवेदनाभावात्तेषामध्येतृता न चेत् / पूर्वानुभूतपानादेस्तदहर्जातदारकाः॥५१॥ स्मर्तारः कथमेवं स्युस्तथा संवेदनाद्विना / स्मृतिलिंगविशेषाच्चेत्तेषां तत्र प्रसाध्यते // 52 // कवीनां किं न काव्येषु पूर्वाधीतेषु सान्वया। यदि ह्युत्पत्तिवर्णेषु पदेष्वर्थेष्वनेकधा // 53 // वाक्येषु चेह कुर्वंतः कवयः काव्यमीक्षिताः। किं न प्रजापतिर्वेदान् कुर्वन्नेवं सतीक्षितः॥५४॥ कश्चित्परीक्षकैर्लोकैः सद्भिस्तद्देशकालगैः। तथा च श्रूयते सामगिरा सामानि रुग्निराट् // 55 // ऋचः कृता इति क्वेयं वेदस्यापौरुषेयता। प्रत्यभिज्ञायमानत्वं नित्यैकांतं न साधयेत् // 56 // पौर्वापर्यविहीनेर्थे तदयोगाद्विरोधतः / पूर्वदृष्टस्य पश्चाद्या दृश्यमानस्य चैकताम् // 57 // फिर पहिले जन्मों में इष्ट साधकपने से अनुभूत किए गए स्तन्यपान, अपने मुखद्वार की ओर दूध को ले जाना, हाथों से पकड़ने का अनुसंधान रखना आदि क्रियाओं के स्मरण करने वाले कैसे हो सकेंगे? अर्थात् पूर्व जन्म में किये जा चुके कृत्यों का अब सम्वेदन होगा तभी उसके अनुसार इस जन्म में क्रियाएँ की जा सकती हैं अन्यथा नहीं // 50-51 // वैदिक शब्दों और अर्थों की तो उन ब्रह्मा, मनु आदि को विशेष रूप से स्मृति होती है। अत: उत्तरजन्म में विशेष सम्वेदन होने के कारण उन मनु आदि के उन वेदों में विशेष स्मृतिस्वरूप ज्ञापकलिंग से पूर्वजन्म का अध्ययन प्रकृष्ट रूप से अनुमान द्वारा सिद्ध किया जाता है किन्तु कवियों को विशेष स्मृति नहीं होने के कारण अपने बनाये गए गीत, कविता आदि का पूर्वजन्मों में अध्ययन करना नहीं सिद्ध किया जा सकता है। इस प्रकार मीमांसक के कहने पर. तो कवियों की भी पूर्वजन्मों में पढ़े हुए ही वर्तमानकालीन काव्यों में अन्वय रूप से आगत वह विशेष स्मृति क्यों नहीं मान ली जाती है ? // 52 // यदि अकार, ककार आदि वर्गों में या सुबन्त, तिङन्त पदों में अथवा परस्पर में एक दूसरे की अपेक्षा रखने वाले पदों के निरपेक्ष समुदायरूप वाक्यों में इनके अर्थों से अनेक प्रकार से उत्पत्ति होना देखा जाता है, और उन वर्ण, पद, वाक्यों की जोड़ मिलाकर नवीन काव्यों को करते हुए कविजन देखे गए हैं (अथवा इसी जन्म में विशेष व्युत्पत्ति को प्राप्त कर कवि लोग नये-नये काव्यों को बना देते हैं।) इस प्रकार मीमांसकों के कहने पर ब्रह्मा भी वेदों को करने वाला क्यों नहीं देखा गया कहा जाता है? वेदों के बनते समय उस देश, उस काल में प्राप्त हुए रागद्वेषविहीन सज्जन लौकिक परीक्षकों के द्वारा वेद का कर्ता भी कोई पुरुष देखा गया है। वेद, वेदांग, श्रुति, स्मृति, पुराण आदि कोई भी अकृत्रिम नहीं हैं, और उस प्रकार सुना भी जाता है कि सामवेद की वाणी के द्वारा साममंत्रों को पढ़ा जाता है। उससे अनेक रोगों का निवारण हो जाता है। ऋग्वेद की ऋचायें अमुक ऋषियों के द्वारा बनायी गयी हैं। इस प्रकार श्रुतियाँ जब उत्पन्न हुई सुनी जा रही हैं, तो भला वेद का अपौरुषेयपना कैसे रह सकता है? // 53-54-55 // यदि कहो कि वेद नित्य है, क्योंकि यह वही है, इस प्रकार एकत्व प्रत्यभिज्ञान सदा से वेद का होता आया है। परन्तु यह प्रत्यभिज्ञान का विषयपना हेतु भी वेद के एकान्तरूप से नित्यपने को सिद्ध नहीं कर सकता है क्योंकि, पूर्व, अपर अवस्थाओं से रहित कूटस्थ पदार्थ में उस एकत्व प्रत्यभिज्ञान के होने
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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