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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 383 तदयोगाद्विरुध्येत संगिरौ च महानसः। सर्वेषां हि विशेषाणां क्रिया शक्या वचोत्तरे // 63 // वेदवाक्येषु दृश्यानामन्येषां चेति हेतुता। युक्तान्यथा न धूमादेरग्न्यादिषु भवेदसौ॥६४॥ ततः सर्वानुमानानामुच्छेदस्ते दुरुत्तरः। प्रमाणं न पुनर्वेदवचसोकृत्रिमत्वतः॥६५॥ साध्यते चेद्भवेदर्थवादस्यापि प्रमाणता। अदुष्टहेतुजन्यत्वं तद्वत्प्रामाण्यसाधने // 66 // हेत्वाभासनमित्युक्तमपूर्वार्थत्वमप्यदः। बाधवर्जितता हेतुस्तत्र चेल्लैंगिकादिवत् // 67 // किमकृत्रिमता तस्य पोष्यते कारणं विना। पुंसो दोषाश्रयत्वेन पौरुषेयस्य दुष्टता // 68 // ___ अर्थात् मतिपूर्वक होने और वर्ण, पद, वाक्यस्वरूप होने से वेद पौरुषेय हैं। पुरुष के कण्ठ, तालु आदि स्थान या प्रयत्नों से शब्द नवीन बनाया गया है अन्यथा (वेद को सकर्तृक माने बिना) उस मतिपूर्वकपने का और पद, वाक्य, आत्मकपने का अयोग होने से विरोध होता है। जैसे पर्वत में महानस (रसोईघर) का विरोध है। अतः सम्पूर्ण विषयों की क्रिया अन्य वचनों में की जा सकती है। भावार्थ : एक भ्रमण या गमन क्रिया को देखकर वैसी दूसरी क्रियाओं में भी सादृश्यमूलक ज्ञान कर लिया जाता है। वेदवाक्यों में भी देखे गये अथवा अन्य सदृश शब्दों को भी शाब्दबोध ज्ञापक हेतुपना युक्त है। अन्यथा (सादृश्य अनुसार दूसरे हेतुओं को ज्ञापक हेतु नहीं माना जायेगा, तब तो) अग्नि आदि साध्यों को साधने में दिये गए धूम आदि को वह ज्ञापकहेतुपना नहीं बन सकेगा, अत: तुम्हारे यहाँ सम्पूर्ण अनुमानों का मूलोच्छेद हो जाएगा। इसका उत्तर तुम अति कठिनता से भी नहीं दे सकते हो, अतः श्रुत शब्दों के सदृश शब्दों को सुनकर भी शाब्दबोध हो जाता है अत: वेद को अनित्य मानना ही श्रेष्ठ है॥६१-६२६३-६४॥ शंका : वेदोक्त वचन अकृत्रिम होने से प्रमाण नहीं - ऐसा कहने पर तो कर्मकाण्ड प्रतिपादक मंत्रों की स्तुति करने वाले अर्थवाद कृत्रिम वाक्यों को भी प्रमाणपना प्राप्त हो जाएगा। अर्थात् उनका ही श्रवण, मनन, ध्यान करना चाहिए, यह सिद्ध होगा॥६५॥ ___समाधान : मीमांसकों द्वारा वेदवचन को प्रमाणपना साधने में दिया गया अदुष्ट हेतुओं से जन्यपना हेतु भी उसी अकृत्रिमपन हेतु के समान व्यभिचारी हेत्वाभास है। यह भी उक्त कथन के द्वारा कह दिया गया है। अर्थात् यहाँ इष्ट प्रमाणों में प्रमाणता को साधने के लिए प्रयुक्त किये गए तीन ज्ञापक हेतु तो वेदवचनों को प्रमाणपना साधने में दूषित कर दिये गए हैं॥६६।। उन वेद वचनों में प्रमाणपना सिद्ध करने के लिए दिया गया बाधवर्जितपना हेतु भी लिंगजन्य अनुमान या प्रत्यक्षप्रमाण आदि के समान वेद वचनों को अनित्य सिद्ध करने वाला होने से फिर बिना कारण ही उस वेद का अकृत्रिमपना क्यों पुष्ट कर रहा है? // 67 // जैसे अनुमान आदि प्रमाण बाधक कारणों से रहित हैं अर्थात् अनुमान प्रमाण के मानने में कोई बाधा नहीं है उसी प्रकार वेद को कृत्रिम मानने में कोई बाधा नही है तो फिर व्यर्थ में वेद को अकृत्रिम सिद्ध करने का प्रयत्न क्यों किया जा रहा है। अनुमान प्रमाण और प्रत्यक्ष प्रमाण से वेद का कृत्रिमपना सिद्ध ही है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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