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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 374 द्विभेदमंगबाह्यत्वादंगरूपत्वतः श्रुतम् / अनेकभेदमत्रैकं कालिकोत्कालिकादिकम् // 15 // द्वादशावस्थमंगात्मतदाचारादिभेदतः। प्रत्येकं भेदशब्दस्य संबंधादिति वाक्यभित् // 16 // मुख्या ज्ञानात्मका भेदप्रभेदास्तस्य सूत्रिताः। शब्दात्मकाः पुनर्गौणाः श्रुतस्येति विभिद्यते // 17 // तत्र श्रुतज्ञानस्य मतिपूर्वकत्वेपि सर्वेषां विप्रतिपत्तिमुपदर्शयति;शब्दज्ञानस्य सर्वेपि मतिपूर्वत्वमादृताः। वादिनः श्रोत्रविज्ञानाभावे तस्यासमुद्भवात् // 18 // भवतु नाम श्रुतज्ञानं मतिपूर्वकं याज्ञिकानामपि तत्राविप्रतिपत्तेः “शब्दादुदेति यज् विज्ञानमप्रत्यक्षेऽपि वस्तुनि / शाब्दं तदिति मन्यते प्रमाणांतरवादिनः” इति वचनात् / शब्दात्मकं तु श्रुतं वेदवाक्यं न मतिपूर्वक तस्य नित्यत्वादिति मन्यमानं प्रत्याहआचार, सूत्रकृत, स्थान आदि भेदों से बारह अवस्था को (बारह भेद को) प्राप्त है (या बारह भेदों में अवस्थित है।) द्वन्द्व समास अन्तर्गत भेद शब्द का प्रत्येक में सम्बन्ध हो जाने से दो भेद, अनेक भेद और * बारह भेद, इस प्रकार भिन्न-भिन्न तीन वाक्य हो जाते हैं॥१५-१६॥ ___इस सूत्र में कथित श्रुतज्ञान के भेद-प्रभेद मुख्य रूप से तो ज्ञानस्वरूप सूचित किये गए हैं। तथा श्रुत के शब्दात्मक भेद गौणरूप से कहे गए हैं। इस प्रकार श्रुत के मुख्यरूप से ज्ञानस्वरूप और गौणरूप से शब्दस्वरूप विशेष भेद कर लेना चाहिए। भावार्थ : वस्तुत: जैन सिद्धान्त में ज्ञान को ही प्रमाण इष्ट किया है किन्तु ज्ञान के कारणों में प्रधान कारण शब्द है। मोक्ष या तत्त्वज्ञान के उपयोगी अथवा विशिष्ट विद्वत्ता सम्पादनार्थ शब्द ही कारण पड़ते हैं। अत: शिष्य के ज्ञान का कारण और वक्ता के ज्ञान का कार्य होने से उस ज्ञान के प्रतिपादक वचन को भी उपचार से प्रमाण कह दिया जाता है॥१७॥ इस प्रकरण में श्रुतज्ञान का मतिपूर्वकपना सम्पूर्ण वादियों के यहाँ सिद्ध हो जाने पर भी किसीकिसी के यहाँ इस विषय को ग्रन्थकार विवादग्रस्त दिखलाते हैं - सम्पूर्ण वादी विद्वानों ने भी शब्दजन्य वाच्य अर्थज्ञानरूप श्रुतज्ञान का मतिपूर्वकपना स्वीकार किया है, क्योंकि कर्ण इन्द्रियजन्य मतिज्ञान के नहीं होने पर उस शाब्दबोध की उत्पत्ति नहीं होती है। भावार्थ : शब्द श्रवण, संकेतस्मरण ये सभी वाच्यार्थ ज्ञानों में कारण पड़ जाते हैं। इस प्रकार व्यतिरेकेबल से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का कार्यकारण भाव सबको अभीष्ट है॥१८॥ __मीमांसक कहते हैं कि वह श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक है तो होओ, इसमें कोई क्षति नहीं है क्योंकि ज्योतिष्टोम आदि यज्ञों की उपासना करने वाले मीमांसकों के भी उसमें कोई विप्रतिपत्ति (विवाद) नहीं है। हमारे ग्रन्थों में इस प्रकार कथन किया है कि “अप्रत्यक्ष पदार्थों में भी शब्द से संकेतस्मरण द्वारा ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। आगमज्ञान को पृथक् प्रमाण मानने वाले विद्वान् उस ज्ञान को शाब्दबोध इस नाम से स्वीकार करते हैं, किन्तु वह शब्दात्मक श्रुत वेदों के वाक्य हैं। वे मतिज्ञानपूर्वक उत्पन्न नहीं होते हैं क्योंकि वे वेद के वाक्य नित्य हैं। इस प्रकार अपने मनोनुकूल मानने वाले मीमांसकों के प्रति आचार्य परमार्थ तत्त्व को कहते हैं -
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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