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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 373 न स्मृत्यादि मतिज्ञानं श्रुतमेवं प्रसज्यते। मतिपूर्वत्वनियमात्तस्यास्य तु मतित्वतः॥१२॥ श्रुतज्ञानावृतिच्छेदविशेषापेक्षणस्य च। स्मृत्यादिष्वंतरंगस्याभावान श्रुततास्थितिः॥१३॥ मतिर्हि बहिरंग श्रुतस्य कारणं अंतरंगं तु श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमविशेषः / स च स्मृत्यादेर्मतिविशेषस्य नास्तीति न श्रुतत्वम्॥ मतिपूर्वं ततो ज्ञेयं श्रुतमस्पष्टतर्कणम् / न तु सर्वमतिव्याप्तिप्रसंगादिष्टबाधनात् // 14 // ___ श्रुतमस्पष्टतर्कणमित्यपि मतिपूर्वं नानार्थप्ररूपणं श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमापेक्षमित्यवगंतव्यमन्यथा स्मृत्यादीनामस्पष्टाक्षज्ञानानां च श्रुतत्वप्रसंगात्। सिद्धांतविरोधापत्तिरिति सूक्तं मतिपूर्वं श्रुतं / तच्चकी अपेक्षा श्रुतज्ञान को होती है। श्रुतज्ञान का वह अन्तरंग कारण है। स्मृति आदि अन्तरंग कारण मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमविशेष से उत्पन्न होते हैं, अतः स्मृति आदि में श्रुतज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशमस्वरूप अन्तरंग कारण के नहीं होने से श्रुतपना व्यवस्थित नहीं हो पाता // 12-13 // मतिज्ञान द्रव्यश्रुत या भावश्रुत का बहिरंग कारण है। श्रुत का अन्तरंग कारण तो श्रुतज्ञानावरण कर्म का विशेष क्षयोपशम है। वह श्रुतज्ञानावरण कर्म का विशेष क्षयोपशम स्मृति आदि के नहीं है। अतः स्मृति आदि को श्रुतपना नहीं है। - जो कोई प्रतिवादी अविशदरूप तर्कणा करने को श्रुतज्ञान कहते हैं, उनको भी उस अस्पष्ट तर्कण लक्षण से वह मतिपूर्वक होता हुआ ही अस्पष्ट सम्वेदन श्रुत समझना चाहिए। किन्तु सभी अविशद सम्वेदनों को श्रुत नहीं समझ लेना चाहिए। - अन्यथा (मतिपूर्वक होने वाले या इन्द्रियपूर्वक होने वाले अथवा व्याप्तिज्ञानपूर्वक होने वाले एवं अवग्रहपूर्वक हुए आदि) सभी अविशद ज्ञानों को यदि श्रुत माना जायेगा तब तो रासन, स्पार्शन मतिज्ञान, अनुमान, ईहा आदि अस्पष्ट ज्ञानों में अतिव्याप्ति दोष हो जाने का प्रसंग होगा। और ऐसा होने से इष्टसिद्धान्त में बाधा उपस्थित हो जाएगी॥१४॥ ____ पदार्थों का अविशद वेदन करना श्रुतज्ञान है और वह श्रुतज्ञान मतिपूर्वक होता है। तथा श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम विशेष की अपेक्षा से उत्पन्न हुआ और अविनाभावी अनेक अर्थान्तरों का प्ररूपण करने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान है ऐसा समझ लेना चाहिए। अन्यथा (ऐसा नहीं मानने पर) स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि तथा अन्य इन्द्रियों से जन्य अस्पष्ट मतिज्ञानों को भी अस्पष्ट सम्वेदन होने के कारण श्रुतपने का प्रसंग आएगा और ऐसा होने पर जैन सिद्धान्त के साथ विरोध हो जाने की आपत्ति हो जाती है अत: मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है यह मतिज्ञान का लक्षण समीचीन है। बहिरंग कारण मतिज्ञान से और अन्तरंग कारण श्रुतज्ञानावरण क्षयोपशम से उत्पन्न हुआ अविशदज्ञान श्रुतज्ञान है। तथा श्रुतज्ञान तो - "श्रुतं मतिपूर्वं' - इतने सूत्रार्द्ध का व्याख्यान कर अब “व्यनेकद्वादशभेदम्" इस उत्तरार्द्ध का भाष्य करते हैं - कि वह श्रुतज्ञान अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट के भेद से दो प्रकार का है। इसमें प्रथम (अंगबाह्य) तो कालिक, उत्कालिक, आदि के भेद से अनेक प्रकार का है। तथा अंग स्वरूप वह श्रुतज्ञान
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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