________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 372 मतिसामान्यनिर्देशान्न श्रोत्रमतिपूर्वकं। श्रुतं नियम्यतेऽशेषमतिपूर्वस्य वीक्षणात्॥१०॥ श्रुत्वा शब्दं यथा तस्मात्तदर्थं लक्षयेदयं / तथोपलभ्य रूपादीन) तन्नांतरीयकम् // 11 // यथा हि शब्द: स्ववाच्यमविनाभाविनं प्रत्यापयति तथा रूपादयोपि स्वाविनाभाविनमर्थं प्रत्यापयंतीति श्रोत्रमतिपूर्वकमिव श्रुतज्ञानमीक्ष्यते / ततो न श्रोत्रमतिपूर्वकमेव तदिति नियमः श्रेयान् , मतिसामान्यवचनात्॥ गणधर देव आदिकों को उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान भी केवलज्ञानपूर्वक नहीं है, क्योंकि उस श्रुतज्ञान के निमित्तकारण सर्वज्ञ कथित शब्दों को विषय करने वाले कर्ण इन्द्रियजन्य विशिष्ट अतिशय वाले मतिज्ञान को अव्यवहित पूर्ववर्ती मानकर उन गणधर आदि के वह द्रव्य एवं भाव श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है अत: “मतिपूर्व' यह श्रुतज्ञान का लक्षण सूत्र निर्दोष है। “मतिपूर्व" ऐसा निर्देश करके सामान्यरूप से सम्पूर्ण मतिज्ञानों का संग्रह होने से केवल श्रोत्रइन्द्रियजन्य मतिज्ञान को ही पूर्ववर्ती मानकर श्रुतज्ञान उत्पन्न होता है, ऐसा नियम नहीं किया जा सकता है, क्योंकि रूप का चाक्षुषज्ञान, रस या रसवान का रासन ज्ञान अथवा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि सभी प्रकार के मतिज्ञानों-स्वरूप पूर्ववर्ती निमित्तों से श्रुतज्ञानों की उत्पत्ति होती हुई देखी जाती है। यह श्रुतज्ञानी जीव या श्रुतशब्दप्रयोक्ता वक्ता जिस प्रकार शब्द को सुनकर उससे उसके वाच्य अर्थ को लक्षित कर देता है, उसी प्रकार चक्षु आदि इन्द्रियों द्वारा रूप, स्पर्श आदि अर्थों को मतिज्ञान से जानकर उन अर्थों के अविनाभावी अर्थान्तरों को भी श्रुतज्ञान द्वारा ग्रहण कर लेता है। उसमें कोई विशेषता नहीं है। कर्ण इन्द्रिय के समान अन्य पाँचों इन्द्रियों से भी मतिज्ञान होकर उसको पूर्ववर्ती निमित्त कारण हो जाने पर द्रव्यश्रुत या भावश्रुत उत्पन्न होते हैं अतः श्रुत की बहुभाग प्रवृत्ति श्रोत्र इन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान में होती है। एतावता अन्य इन्द्रियजन्य मतिज्ञानपूर्वक होने वाले श्रुतों का निराकरण नहीं किया जा सकता है॥१०-११॥ जिस प्रकार शब्द अपने अविनाभावीवाच्य अर्थ का नियम से निश्चय करा देता है, उसी प्रकार रूप, रस आदि भी अपने साथ अविनाभाव रखने वाले दूसरे अर्थों की प्रतीति करा देते हैं अतः श्रोत्रमतिपूर्वक श्रुतज्ञान के समान चाक्षुष आदि मतिपूर्वक भी श्रुतज्ञान होते देखे जाते हैं। श्रुतज्ञान केवल श्रोत्रमतिपूर्वक ही है, यह नियम करना श्रेष्ठ नहीं है। अन्यथा अन्धे, बहरे जीवों के श्रुतज्ञानों में या अन्य भी जीवों के श्रुतज्ञानों में लक्षण नहीं घटने से अव्याप्ति दोष आएगा अत: सूत्रकार ने सामान्य मतिज्ञानों के संग्रहार्थ “मतिपूर्व" ऐसा सामान्य करके मति यह वचन कहा है, जो कि सभी मतिज्ञानों को श्रुत का निमित्त होना संभव है। ___ इस प्रकार स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, धारणा आदिक मतिज्ञान ही श्रुतज्ञान हो जाएंगे, यह प्रसंग भी प्राप्त नहीं होता है, क्योंकि, सूत्रकार ने उस श्रुतज्ञान के मतिपूर्वकपने का नियम किया है, किन्तु ये स्मृति आदिक तो स्वयं मतिज्ञानरूप ही हैं। यदि इन स्मरण आदि के पूर्व में साक्षात् या परम्परा से मतिज्ञान होता, तब तो ये श्रुत कहे जा सकते थे। किन्तु, ये स्मरण आदिक तो मूल में ही स्वयं मतिज्ञानस्वरूप हैं। श्रुतज्ञानावरण कर्म के विशेष क्षयोपशम