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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 375 शब्दात्मकं पुनर्येषां श्रुतमज्ञानपूर्वकं / नित्यं तेषां प्रमाणेन विरोधो बहुचोदितः // 19 // प्रत्यक्षबाधनं तावदग्निमीळे पुरोहितं। इत्येवमादिशब्दस्य ज्ञानपूर्वत्ववेदनात् // 20 // तद्व्यक्ते: ज्ञानपूर्वत्वं स्वयं संवेद्यते न तु / शब्दस्येति न साधीयो व्यक्तेः शब्दात्मकत्वतः॥२१॥ शब्दादांतरं व्यक्तिः शब्दस्य कथमुच्यते। संबंधाच्चेति संबंधः स्वभाव इति सैकता // 22 // शब्दव्यक्तेरभिन्नैकसंबंधात्मत्वतो न किम् / संबंधस्यापि तद्भेदेऽनवस्था केन वार्यते? // 23 // जिन मीमांसकों के यहाँ शब्दात्मक श्रुत अज्ञानपूर्वक और नित्य माना गया है, उनके यहाँ प्रमाणों के द्वारा विरोध आता है। इसको हम बहुत प्रकार से पूर्व प्रकरणों में कह चुके हैं॥१९॥ उन प्रमाणों में से पहले प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा तो बाधा इस प्रकार है कि "अग्निमीडे पुरोहितं" - इस प्रकार के अन्य भी वैदिक शब्दों का ज्ञानपूर्वक वेदन हो रहा है। “अग्नि की या पुरोहित की मैं स्तुति कर रहा हूँ" इत्यादि शब्दजन्यज्ञान शब्द का श्रावण प्रत्यक्ष से और उस अर्थ के साथ शब्द का संकेत स्मरण कर पीछे ही आगमज्ञान होता हुआ जाना जा रहा है। अथवा “अग्निमीडे' आदि शब्दों की भी उत्पत्ति ज्ञानपूर्वक ही होती है॥२०॥ शब्द की अभिव्यक्ति ही ज्ञानपूर्वक होती हुई स्वयं जानी जा रही है परन्तु शब्द को ज्ञानपूर्वकपना नहीं है, शब्द तो नित्य है। इस प्रकार मीमांसकों का कहना प्रशंसनीय नहीं है, क्योंकि शब्दों की अभिव्यक्ति तो शब्द-आत्मक निश्चित है। घट की अभिव्यक्ति घटस्वरूप ही होती है, अतः श्रुतज्ञान मतिज्ञानपूर्वक होता है-यह कहना समीचीन है॥२१॥ यदि शब्द की अभिव्यक्ति को शब्द से पृथक् पदार्थ स्वीकार करते हैं, तब तो शब्द का प्रकट होना शब्द का है, यह कैसे कहा जा सकता है? शब्द और अभिव्यक्ति का सम्बन्ध हो जाने से वह अभिव्यक्ति शब्द की कह दी जाती है। इस प्रकार मीमांसकों के कहने पर तो शब्द और अभिव्यक्ति का वह सम्बंध स्व का भावस्वरूप स्वभाव ही माना जाएगा और इस प्रकार मानने पर तो फिर वही शब्द और अभिव्यक्ति का एकपना प्राप्त हो जाता है अत: अभिव्यक्ति के समान वैदिक शब्द भी ज्ञान से उत्पन्न हुए कहे जाएंगे॥२२॥ शब्द के उसकी प्रकटता के साथ होने वाले सम्बन्ध को यदि प्रतियोगी, अनुयोगी दोनों पदार्थों से अभिन्न माना जाएगा, तब तो अभिन्न एक सम्बन्धात्मकपना हो जाने से शब्द और अभिव्यक्ति दोनों एक क्यों नहीं हो जायेंगे? यदि शब्द और व्यक्ति के बीच में पड़े हुए सम्बन्ध का भी उन प्रतियोगी, अनुयोगी दोनों से भेद माना जाएगा तो अनवस्था दोष किसके द्वारा निवारा जा सकता है? __ अर्थात् भिन्न सम्बन्ध को जोड़ने के लिए अन्य सम्बन्ध की आवश्यकता होगी, और सम्बन्धियों से भिन्न पड़े हुए अन्य सम्बन्ध को भी “उनका यह है" - इस प्रकार व्यवहार कराने के लिए चौथे, पाँचवें आदि सम्बन्धों की आकांक्षा बढ़ती ही जाएगी अत: अनवस्था दोष आएगा। इसका निवारण मीमांसकों के द्वारा नहीं हो सकता है॥२३॥
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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