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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 369 श्रुतमित्युपचर्यते। मुख्यस्य श्रुतज्ञानस्य भेदप्रतिपादनं कथमुपपन्नं तज्ज्ञानस्य भेदप्रभेदरूपत्वोपपत्तेः द्विभेदप्रवचनजनितं हि ज्ञानं द्विभेदं अंगबाह्यप्रवचनजनितस्य ज्ञानस्यांगबाह्यत्वात् अंगप्रविष्टवचनजनितस्य चांगप्रविष्टत्वात्। तथाने कद्वादशप्रभेदवचनजनितं ज्ञानमने कद्वादशप्रभेदकं कालिकोत्कालिकादिवचनजनितस्यानेकप्रभेदरूपत्वात् , आचारादिवचनजनितस्य च द्वादशप्रभेदत्वादिदमुपचरितं च श्रुतं व्यनेकद्वादशभेदमिहैव वक्ष्यते। द्विभेदमनेकद्वादशभेदमिति प्रत्येकं भेदशब्दस्याभिसंबंधात् तथा चतुर्भेदो शंका : श्रुतज्ञान के मुख्य भेद-प्रभेदों का उक्त रीत्या प्रतिपादन करना कैसे युक्तियुक्त हो सकता समाधान : भेद-प्रभेद वाले उन शब्दों से उत्पन्न हुए श्रुतज्ञान के भी उन दो आदि को भेद प्रभेदस्वरूपपना बन जाता है अत: दो भेद वाले शब्दमय प्रवचन से उत्पन्न हुआ श्रुतज्ञान इन अंगबाह्य और अंगप्रविष्ट भेदों से दो भेद वाला है। मध्यमपद के अक्षरों का श्रुतज्ञान के अक्षरों में भाग देने पर शेष बचे आठ करोड़ एक लाख आठ हजार एक सौ पचहत्तर अक्षरों का स्वरूप शब्दमय श्रुतप्रवचन से उत्पन्न हुआ ज्ञान अंगबाह्य है और बारह अंगों में प्रविष्ट कुछ न्यून 18446744073709551615 इतने अपुनरुक्त अक्षर अथवा इनसे कितने ही गुने पुनरुक्तअक्षरों या एक सौ बारह करोड़ तिरासी लाख अट्ठावन हजार पाँच . मध्यम पदों स्वरूप शब्दश्रुत प्रवचन से उत्पन्न हुआ ज्ञान तो अंगप्रविष्ट है। इस प्रकार दो प्रकार के प्रवचन से दो भेद वाला श्रुतज्ञान कहा जाता है। तथा, अंगबाह्य भेद के अनेक प्रभेद और अंगप्रविष्ट भेद के बारह प्रभेदस्वरूप वचन से उत्पन्न हुआ ज्ञान अनेक प्रभेद और बारह प्रभेद वाला व्यवहृत होता है। स्वाध्यायकाल में पढ़ने योग्य नियतकाल वाले वचन कालिक हैं और स्वाध्याय काल के लिए अनियत कालरूप वचन उत्कालिक हैं। इनके भेद सामायिक, उत्तराध्ययन आदि हैं। ऐसे कालिक आदि वचनों से उत्पन्न हुआ अंग बाह्य ज्ञान अनेक प्रभेदरूप है और अट्ठारह हजार, छत्तीस हजार आदि मध्यम पदोस्वरूप आचारांग, सूत्रकृतांग आदि वचनों से उत्पन्न हुआ अंगप्रविष्ट ज्ञान के बारह प्रभेद हैं, अत: यह शब्दस्वरूप श्रुत उपचरित प्रमाण है। इस शब्द श्रुत के द्रव्य रूप से दो भेद अथवा अनेक और बारह प्रभेद यहाँ ही ग्रन्थ में स्पष्ट किये जाएंगे। ये सब भेद शब्दस्वरूप द्वादशांग वाणी और अंगबाह्य वाणी के हैं। द्वन्द्व समास के आदि या अन्त में पड़े हुए पद का प्रत्येक पद में सम्बन्ध हो जाता है। . अत: यहाँ भी “व्यनेकद्वादशभेदम्” इस समासित पद के अन्त में पड़े हुए भेद शब्द का तीनों में समन्तात् सम्बन्ध हो जाने से दो भेद, अनेक भेद और बारह भेद ऐसा अर्थ हो जाता है और ऐसा होने पर अतिप्रसङ्गों की व्यावृत्ति कर दी जाती है। अन्यमती विद्वान् वेदरूप श्रुत के ऋग्, यजुर्, साम, अथर्व ये चार भेद मानते हैं, अथवा चार वेदों के शिक्षा, व्याकरण, कल्प. निरुक्त, छन्द, ज्योतिष ये छह अंग स्वरूप प्रभेद मानते हैं, या वेदों की हजार शाखायें स्वीकार करते हैं। इतर पण्डित आत्मतत्त्व प्रतिपादक ईश, केन, तित्तिरि आदि दश उपनिषदों या अन्य उपनिषदों को भी स्वीकार करते हैं। इत्यादि भेद प्रभेद वाले श्रुताभास
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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