________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 370 वेद: षडंगः सहस्रशाखः इत्यादि श्रुताभासनिवृत्तिरप्रमाणत्वप्रत्यक्षत्वादिनि वृत्तिश्च कृता भवति। कथमित्याह;सम्यगित्यधिकारात्तु श्रुताभासनिवर्तनम्। तस्याप्रामाण्यविच्छेदः प्रमाणपदवृत्तितः॥४॥ परोक्षाविष्कृतेस्तस्य प्रत्यक्षत्वनिराक्रिया। नावध्यादिनिमित्तत्वं मतिपूर्वमिति श्रुतेः॥५॥ न नित्यत्वं द्रव्यश्रुतस्य भावश्रुतस्य वा न नित्यनिमित्तत्वमिति सामर्थ्यादवसीयते मतिपूर्वत्ववचनादवध्याद्यनिमित्तत्ववत्। श्रुतनिमित्तत्वं श्रुतस्यैवं बाध्येतेति न शंकनीयं। कुतः ? की निवृत्ति उक्त भेद प्ररूपण से हो जाती है। “तत्प्रमाणे" सूत्र से प्रमाण पद की अनुवृत्ति चले आने से दो, अनेक, बारह भेद वाले श्रुत के अप्रमाणपने की निवृत्ति हो जाती है और “आद्ये परोक्षम्" कह देने से श्रुत को प्रत्यक्षप्रमाणपने की निवृत्ति हो जाती है। श्रुतज्ञान में अवग्रह, ईहा आदिपना भी निषिद्ध होज़ाता है। “मतिपूर्वं" ऐसा कह देने से अवधि आदि प्रत्यक्षप्रमाणरूप निमित्तों से श्रुत की उत्पत्ति होना प्रतिषिद्ध कर दिया गया है। तथा, श्रुतज्ञान किसी भी ज्ञान को पूर्ववर्ती नहीं मानकर स्वतंत्र तथा मति या केवलज्ञान के समान हो जाता है, इस अनिष्ट प्रसंग की भी “मतिपूर्व' कह देने से निराकृति कर दी गई है। कैसे या किस प्रकार कर दी गई है? इसकी उपपत्ति को स्वयं ग्रन्थकार स्पष्ट करते हैं - .. “तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्" - इस सूत्र से सम्यक् इस पद का अधिकार चला आ रहा है अत: वेद व्यासोक्त पुराण आदि शास्रसदृश दीखने वाले श्रुताभासों की निवृत्ति हो जाती है और “तत्प्रमाणे" सूत्र से प्रमाण पद की अनुवृत्ति होने के कारण उस श्रुतज्ञान के अप्रमाणपने का विच्छेद हो जाता है। आदि के दो ज्ञान परोक्ष हैं। इस प्रकार पूर्व में ही श्रुतज्ञान को परोक्षपना प्रकट कर देने से उस श्रुत के प्रत्यक्षपन का निराकरण हो जाता है। इसी प्रकार “मतिपूर्व" - इस सूत्र का श्रवण होने से श्रुत में अवधि, मन:पर्यय आदि निमित्तों से उत्पन्न होने का भी निषेध किया गया है अत: मतिपूर्व, सम्यक्, परोक्षं, प्रमाणं, श्रुतं इस वाक्यार्थ द्वारा अनिष्ट निवृत्ति होकर श्रुत का स्वरूप निरूपण हो जाता है॥४-५॥ शब्दस्वरूप द्रव्यश्रुत के अथवा लब्धि उपयोगस्वरूप भावश्रुत के नित्यपना नहीं है तथा व्यापक, कूटस्थ नित्य, शब्दोंस्वरूप निमित्त से उत्पन्न होना भी नहीं है। यह सूत्र के सामर्थ्य से ही अर्थापत्ति द्वारा निश्चित कर लिया जाता है क्योंकि सूत्रकार का श्रुतज्ञान को मतिपूर्वक वचन है। जैसे कि अवधि आदि निमित्तों का नैमित्तिकपना श्रुत में नहीं है। अर्थात् - प्रवाहरूप से द्रव्यश्रुत या भावश्रुत नित्य हो सकते हैं किन्तु व्यक्तिरूप से श्रुत अनित्य है और अनित्य मतिज्ञान से उत्पन्न होता है। अनित्य शब्दों से भावश्रुत होता है। अवधि आदि ज्ञान श्रुत के निमित्त नहीं हैं। इस प्रकार मतिज्ञान को ही श्रुत का निमित्त मान लेने पर तो फिर श्रुतज्ञान के पीछे उस श्रुतज्ञान को निमित्त मानकर उत्पन्न होने वाले द्रव्यश्रुत या भावश्रुत की उत्पत्ति में बाधा आती है, ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि