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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 355 प्रत्यक्षेणानुमानेन स्वागमेन च बाधितः। पक्षः प्राप्तिपरिच्छेदकारि चक्षुरिति स्थितः // 75 // कालात्ययापदिष्टश्च हेतुर्बाह्येद्रियत्वतः / इत्यप्राप्तार्थकारित्वे घ्राणादेरिव वांछिते // 76 // ___ न हि पक्षस्यैवं प्रमाणबाधायां हेतुः प्रवर्तमानः साध्यसाधनायालमतीतकालत्वादन्यथातिप्रसंगात्॥ एतेन भौतिकत्वादिसाधनं तत्र वारितं / प्रत्येतव्यं प्रमाणेन पक्षबाधस्य निर्णयात् // 77 // प्राप्यकारि चक्षु तिकत्वात्करणत्वात् घ्राणादिवदित्यत्र न केवलं पक्षः प्रत्यक्षादिबाधितः। कालात्ययापदिष्टश्चेद्धेतुः पूर्ववदुक्तः। किं तीनैकांतिकश्चेति कथयन्नाह; प्रमाण और अनुमान प्रमाण तथा श्रेष्ठ युक्तिपूर्ण समीचीन आगमप्रमाण के द्वारा बाधित है। ऐसी दशा में वैशेषिकों के द्वारा प्रयुक्त किया गया “बाह्य इन्द्रियपना होने से" यह हेतु बाधित हेत्वाभास है। अर्थात् प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों के द्वारा चक्षु का अप्राप्यकारीपना सिद्ध हो जाने पर पीछे काल में वह हेतु प्रयुक्त किया गया है। इस प्रकार घ्राण आदि के समान इस दष्टान्त से प्राप्यकारिता को वाञ्छायुक्त इष्टसाध्य करने पर कहा गया बाह्य इन्द्रियत्व हेतु बाधित है क्योंकि प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणों से चक्षु में अप्राप्यकारीपना सिद्ध हो चुका है॥७५-७६॥ इस प्रकार वैशेषिकों का पक्ष (इन्द्रिय प्राप्यकारी है) प्रमाणों के द्वारा बाधित हो जाने के कारण प्रवर्त्तमान साध्य को साधने के लिए समर्थ नहीं है, क्योंकि हेतु अतीत काल है; साधनकाल के बीत जाने पर बोला गया है। अन्यथा (प्रमाणों से अप्राप्यकारित्व के सिद्ध हो जाने पर पीछे बोला गया हेतु भी यदि अपने साध्य प्राप्यकारीपन को सिद्ध करेगा तो नियत व्यवस्थाओं का उल्लंघन करना रूप) अतिप्रसंग दोष आयेगा। अर्थात् - अग्नि शीतल है, सूर्य स्थिर है, नरक-स्वर्ग नहीं है, धर्म-सेवन करमा परलोक में दुःख का कारण है, इत्यादि प्रतिज्ञायें भी सिद्ध हो जाएंगी। ... इस उक्त कथन से भौतिकपना, करणपना आदि हेतु भी उस चक्षु को प्राप्यकारित्व साधने में निवारण कर दिये गये समझ लेने चाहिए, क्योंकि प्रमाणों के द्वारा पक्ष की बाधा हो जाने का निर्णय हो रहा है // 77 // . ... वैशेषिक : चक्षु प्राप्यकारी है - भौतिकपना, करणपना आदि हेतु भी उस चक्षु को प्राप्यकारित्व है-ज्ञप्ति का साधकतम होने से, घ्राण आदि (नासिका, रसना, त्वचा, श्रोत्र) के समान। वैशेषिकों के इन अनुमानों में पक्ष (प्रतिज्ञा) प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित है। इतना ही नहीं अपितु पूर्व के बाह्य इन्द्रियत्व हेतु के समान भौतिकत्व और करणत्व हेतु कालात्ययापदिष्ट है। केवल बाधित हेतु ही नहीं समझना। तब . और क्या समझा जाए? इसका उत्तर - अपितु उक्त हेतु व्यभिचारी भी हैं। भावार्थ : वैशेषिकों के यहाँ पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, ये पाँच द्रव्य भूत पदार्थ माने गये हैं। बहिरंग इन्द्रियों से ग्रहण करने योग्य विशेष गुणों के धारक द्रव्य भूत कहे जाते हैं। इनमें पृथ्वी से घ्राण इन्द्रिय बनती है। जल से रसना इन्द्रिय उपजती है। चक्षु इन्द्रिय तेजोद्रव्य का विकार है। त्वचा इन्द्रिय वायु का विवर्त है। श्रोत्र आकाशस्वरूप है, जबकि भौतिक चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं, तो चक्षु भी प्राप्यकारी
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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