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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 356 अयस्कांतादिना लोहमप्राप्याकर्षता स्वयं। अनैकांतिकता हेतो तिकार्थस्य बाध्यते // 7 // कायांतर्गतलोहस्य बहिर्देशस्य वक्ष्यते। नायस्कांतादिना प्राप्तिस्तत्करैर्वोक्तकर्मणि // 79 // यथा कस्तूरिकाद्रव्ये वियुक्तेपि पटादितः। तत्र सौगंध्यतः प्राप्तिस्तद्धाणुभिरिष्यते // 8 // अयस्कांताणुभिः कैश्चित्तथा लोहेपि सेष्यतां। विभक्तेपि ततस्तत्राकृष्ट्यादेदृष्टितस्तदा // 81 // इत्ययुक्तमयस्कांतमप्राप्तं प्रति दर्शनात् / लोहाकृष्टेः परिप्राप्तास्तदंशास्तु न जातुचित् // 82 // .. यथा कस्तूरिकाद्यर्थं गंधादिपरमाणवः। स्वाधिष्ठानाभिमुख्येन तान् नयंति पटादिगाः॥८३॥ तथायस्कांतपाषाणं सूक्ष्मभागाश्च लोहगाः। इत्यायातमितोप्राप्तायस्कांतो लोहकर्मकृत् // 84 // होनी चाहिए। घ्राण आदि के समान चक्षु भी ज्ञान का कारण है। इस प्रकार वैशेषिक का कथन व अनुमान पक्ष प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित है तथा अनैकान्तिक भी है। इसी का समर्थन करते हुए जैनाचार्य कहते ___ लोहे को स्वयं प्राप्त न होकर दूर से आकर्षण करने वाले अयस्कांत या चुम्बक आदि के द्वारा हेतु का व्यभिचारीपना है अत: भौतिक अर्थ का प्राप्यकारीपना बाधित हो जाता है॥७८॥ . शरीर के अन्तर्गत व बाहर देश में रखे हुए लोहे का अयस्कांत, चुम्बक पाषाण आदि के साथ सम्बन्ध नहीं है, तथापि उक्त आकर्षण क्रिया करने वाले उन अयस्कांत आदि की किरणों के द्वारा प्राप्त लोहे के साथ सम्बन्ध प्राप्त होता है, इसका वर्णन आगे करेंगे। अत: भौतिकत्व हेतु व्यभिचारी है // 79 // . पट, पत्र आदि से कस्तूरी, इत्र आदि द्रव्य के वियुक्त होने पर भी उन पट आदि में सुगन्धपना हो जाने के कारण, जैसे उन कस्तूरी आदि की फैली हुई गन्धादि के द्वारा परमाणुओं के साथ प्राप्ति इष्ट है, उसी प्रकार लोहे में भी अयस्कांत चुम्बक की किन्हीं-किन्हीं अणुयें या छोटे-छोटे स्कन्धों के साथ प्राप्ति मान लेनी चाहिए। तभी तो उस चुम्बक से विभक्त होते हुए भी लोहे में उस समय आकर्षण आदि कर्म देखे जाते हैं। भावार्थ : कस्तूरी आदि की गन्ध कुछ दूर पड़े हुए वस्त्र आदि में भी इस सुगन्धित पदार्थों के सूक्ष्म . स्कन्धों का सम्बन्ध होने से सुवासना उत्पन्न हो जाती है। उसी के समान चुम्बक पाषाण के फैलने वाले छोटे-छोटे स्कन्धों द्वारा लोह की प्राप्ति हो जाने पर ही लोहे का आकर्षण हो सकता है, अन्यथा नहीं। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार किसी प्रतिवादी का कहना युक्त नहीं है, क्योंकि दूर से खेंचने वाले, असम्बन्धित, अयस्कांत चुम्बक के प्रति लोह का आकर्षण देखा जाता है। चारों ओर में किसी भी ओर से प्राप्त उस अयस्कांत के अंश तो कभी भी नहीं देखे जाते हैं।८०-८१-८२॥ जिस प्रकार गन्धद्रव्य आदि के परमाणु में वा छोटे स्कन्ध अपने आधारभूत गन्धवान् पदार्थ की ही अभिमुखता से पट आदिक में प्राप्त कस्तूरी आदि अर्थ को उन पट आदि में ले जाते हैं अर्थात् सुगन्ध आदि के सूक्ष्म अवयव दूर पड़े हुए भी सुगन्धितद्रव्य को पट आदि के साथ जोड़ देते हैं, उसी प्रकार लोह में प्राप्त छोटे-छोटे भाग अयस्कांत पाषाण में प्रसिद्ध नहीं है। अतः सिद्ध होता है कि लोह के साथ असम्बन्धित अयस्कांत पाषाण लोह के आकर्षण कर्म को कर रहा है।।८३-८४॥ भावार्थ : कस्तूरी के परमाणुओं की अपने अधिष्ठान के अनुसार वस्त्र में प्राप्ति होती देखी जाती
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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