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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 354 सद्भावादित्यदृष्टवैचित्र्यात्तद्विज्ञानभावाभाववैचित्र्यं मन्यमानान् प्रत्याह;समं चादृष्टवैचित्र्यं ज्ञानवैचित्र्यकारणं। स्याद्वादिनां परेषां चेत्यलं वादेन तत्र नः // 4 // स्याद्वादिनामपि हि चक्षुरप्राप्यकारि केषांचिदतिशयज्ञानभृतामृद्धिमतामस्मदाद्यगोचर विप्रकृष्टस्वविषयपरिच्छेदकं तादृशं तदावरणक्षयोपशमविशेषसद्भावात्। अस्मदादीनां तु यथाप्रतीति स्वार्थप्रकाशकं स्वानुरूपतदावरणक्षयोपशमादिति सममदृष्टवैचित्र्यं ज्ञानवैचित्र्यनिबंधनमुभयेषां। ततो न . नयनाप्राप्यकारित्वं बाध्यते केनचित् घ्राणादिप्राप्यकारित्ववदिति न तदागमस्य बाधोस्ति येन बाधको न स्यात् पक्षस्य / तदेवं आदि से सहित हो रहे द्रव्य या उसके गंध आदि गुणों को जान लेती हैं, क्योंकि उस प्रकार के महत्त्व अनेक द्रव्यवत्त्व आदि से सहित पदार्थों को जानने का पुण्यविशेष हम स्थूलदृष्टियों के पास विद्यमान है। इस प्रकार अदृष्ट की विचित्रता से उन विज्ञानों के होने, नहीं होने की विचित्रता बन जाती है। इस प्रकार कहने वाले वैशेषिकों के प्रति आचार्य महाराज समाधान कहते हैं - पुण्य पाप (प्रकरण अनुसार ज्ञानावरण का क्षयोपशम, क्षय) रूप अदृष्ट की विचित्रता ही तदुत्पन्न ज्ञान की विचित्रता का कारण है। यह बात हम स्याद्वादियों के और नैयायिक, वैशेषिकों के यहाँ समानरूप से मान ली गई है। इस कारण उस प्रकरण में हमारे विवाद करने से क्या लाभ? अर्थात् विवाद नहीं करना चाहिए।७४॥ स्याद्वादियों के सिद्धान्त में भी नियम से अप्राप्यकारी चक्षु किन्हीं किन्हीं अतिशययुक्त ज्ञान को धारने वाले और कोष्ठ, दूरात् विलोकन आदि ऋद्धि वाले जीवों के ज्ञानों को रोकने वाले चाक्षुष प्रत्यक्षावरण के विशिष्ट क्षयोपशम का सद्भाव होने से उन विप्रकृष्ट स्वभाव वाले स्वकीय विषयों की परिच्छेदक हो जाती हैं, जिन विषयों को अस्मद् आदि जीवों की सामान्य चक्षुएँ नहीं जान सकती हैं अर्थात् विशिष्ट क्षयोपशम होने से वैशेषिकों के यहाँ योगियों की और हमारे यहाँ ऋद्धिमान अतिशय ज्ञानी जीवों की चक्षुएँ विप्रकृष्ट पदार्थों को भी जान लेती हैं। हम तुम आदि सामान्य जीवों की चक्षुएँ अल्प, दूर, अव्यवहित पदार्थ को देखती हैं, वैसा प्रतीति के अनुसार अपने विषय की प्रकाशक अपने-अपने अनुरूप उस चाक्षुषप्रत्यक्षावरण के क्षयोपशम से अप्राप्त अर्थ का प्रत्यक्ष कर लेती हैं। वह चाक्षुषप्रत्यक्ष अपने को और स्वविषय को जान जाता है अतः ज्ञान की विचित्रता का कारण अदृष्टवैचित्र्य दोनों वादी-प्रतिवादियों के यहाँ समान है। नेत्रों का अप्राप्यकारीपना किसी भी प्रमाण से बाधित नहीं हो पाता है अर्थात्-किसी भी वादी के द्वारा बाधित नहीं किया जा सकता है, जैसे कि नासिका, रसना आदि इन्द्रियों का प्राप्यकारीपना अबाधित है। तथा चक्षु को अप्राप्यकारी कहने वाले उस आगम की बाधा नहीं आती है, जिससे कि हमारा आगम प्रमाण तुम्हारे चक्षु के प्राप्यकारित्व को सिद्ध करने वाले अनुमान का बाधक नहीं हो। सोही कहा है - चक्षु इन्द्रिय प्राप्ति होकर अर्थ का परिच्छेद कराने वाली है, इस प्रकार यह प्रतिज्ञावाक्य तो प्रत्यक्ष
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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