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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 353 ननु नयनाप्राप्यकारित्वसाधनस्यागमस्य बाधारहितत्वमसिद्धमिति पराकूतमुपदर्य दूषयन्नाह;मनोवद्विप्रकृष्टार्थग्राहकत्वानुषंजनं। नेत्रस्याप्राप्यकारित्वे बाधकं येन गीयते // 7 // तस्य प्राप्ताणुगंधादिग्रहणस्य प्रसंजनम्। घ्राणादेः प्राप्यकारित्वे बाधकं केन बाध्यते॥७१॥ सूक्ष्मे महति च प्राप्तेरविशेषेपि योग्यता। गृहीतुं चेन्महद्दव्यं दृश्यं तस्य न चापरम् // 72 // तर्हाप्राप्तेरभेदेपि चक्षुषः शक्तिरीदृशी। यथा किंचिद्धि दूरार्थमविदिक्कं प्रपश्यति॥७३॥ ___ननु च घ्राणादींद्रियं प्राप्यकारि प्राप्तमपि तत्राणुगंधादियोगिनः परिच्छिनत्ति नास्मदादेस्तादृशादृष्टविशेषस्याभावात् महत्त्वाद्युपेतद्रव्यं गंधादि तु परिच्छिनत्ति तादृगदृष्टविशेषस्य नेत्रों के अप्राप्यकारीपन को साधने वाले आगम का बाधारहितपना असिद्ध है। ऐसी दूसरों की सशंक चेष्टा को दिखलाकर ग्रन्थकार उसे दूषित करते हुए अग्रिम वार्तिक कहते हैं - नेत्र को यदि अप्राप्यकारी माना जाएगा तो दूरदेशवर्ती या भूत, भविष्यत् कालवर्ती विप्रकृष्ट अर्थों का नेत्र द्वारा ग्रहण करने का प्रसंग आएगा, जैसे कि अप्राप्यकारी मन इन्द्रिय से दूर देश के और कालांतरित पदार्थों का ग्रहण हो जाता है। अर्थात् - नेत्रों को विषय के साथ सम्बन्ध हो जाने की जब आवश्यकता ही नहीं है तो सुमेरुपर्वत, स्वयंप्रभदीप या राम, रावण आदि का चाक्षुष प्रत्यक्ष हो जाना चाहिए। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार नेत्र के अप्राप्यकारीपन में जिस विद्वान् द्वारा उक्त प्रसंग प्राप्त होना बाधक कहा जाता है, उसके यहाँ घ्राण, स्पर्शन आदि इन्द्रियों के प्राप्यकारीपन अनुसार प्राप्त परमाणु के गंध, रस, स्पर्श के भी ग्रहण हो जाने का प्रसंग क्यों नहीं बाधक होगा? नासिका आदि के प्राप्यकारीपन में इस बाधक की भला किसके द्वारा बाधा उठायी जा सकती है? // 70-71 // अर्थात् घ्राण आदि इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं उनसे परमाणु में स्थित गंध आदि का ग्रहण होना चाहिए। इसमें बाधक कौन है? . यदि वैशेषिक कहें कि सूक्ष्म और स्थूल पदार्थों में स्पर्शन, रसना, घ्राण इन्द्रियों की प्राप्ति होना यद्यपि विशेषताओं से रहित है, एकसा है, फिर भी महत्त्व परिणामयुक्त द्रव्य ही उन इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष करने योग्य है। अन्य सूक्ष्मपदार्थों की इन्द्रियों द्वारा प्रत्यक्ष हो जाने की योग्यता नहीं है, तब तो हम जैन भी कह सकते हैं कि चक्षु अप्राप्ति यद्यपि समवहित और विपृकृष्ट पदार्थों के साथ एकसी है, कोई भेद नहीं है, तो भी चक्षु की शक्ति इस प्रकार की है कि जिससे वह एक दूर अर्थ को जो कि विदिशाओं में प्रतिमुख पड़ा नहीं होकर सन्मुख स्थित है उसको देखती है, अन्य अयोग्य अतिदूर के विप्रकृष्ट पदार्थों को नहीं देख सकती है। शक्तिरूप योग्यता की सार्वत्रिकता तो माननी पड़ेगी अतः अप्राप्ति होने पर भी चक्षु इन्द्रिय योग्य पदार्थ का ही प्रत्यक्ष कराती है, अयोग्य अर्थों का नहीं // 72-73 // शंका : अज्ञ जीवों की घ्राण आदि इन्द्रियाँ तो प्राप्त परमाणु के गन्ध, रस, स्पर्शों को नहीं जानती हैं, किन्तु योगियों की प्राप्यकारी घ्राणादि इन्द्रियाँ अणु में प्राप्त अणुओं की गन्ध आदि को भी चारों ओर से जान लेती हैं। इस प्रकार के पुण्यविशेष का हम लोगों के पास अभाव है अतः अस्मद् आदि की बहिःइन्द्रियाँ परमाणु, व्यणुक के गन्ध आदि को नहीं जान सकती हैं। हाँ, महत्त्व, उद्भूत, रूप, अनभिभव
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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