SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 357
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ** 352 सहाक्षपंचकस्यैतत्किं नाधिष्ठायकं मतं / यतो न क्रमतोभीष्टं रूपादिज्ञानपंचकम् // 63 // तथा च युगपज्ज्ञानानुत्पत्तेरप्रसिद्धितः। साध्ये मनसि लिंगत्वं न स्यादिति मनः कुतः॥६४॥ मनोऽनधिष्ठिताश्चक्षूरश्मयो यदि कुर्वते। स्वार्थज्ञानं तदप्येतद्दूषणं दुरतिक्रमम् // 65 // ततोक्षिरश्मयो भित्त्वा काचादीन्नार्थभासिनः / तेषामभावतो भावेप्युक्तदोषानुषंगतः // 66 // काचाद्यंतरितार्थानां ग्रहणं चक्षुषः स्थितम् / अप्राप्यकारितालिंगं परपक्षस्य बाधकम् // 67 // एवं पक्षास्याध्यक्षबाधामनुमानबाधां च प्ररूप्यागमबाधां च दर्शयन्नाह;स्पृष्टं शब्दं शृणोत्यक्षमस्पृष्टं रूपमीक्ष्यते। स्पृष्टं बद्धं च जानाति स्पर्श गंधं रसं तथा // 68 // इत्यागमश्च तस्यास्ति बाधको बाधवर्जितः। चक्षुषोप्राप्यकारित्वसाधनः शुद्धधीमतः॥६९॥ जिससे कि क्रम से अभीष्ट किये गए रूप, रस, गंध, स्पर्श शब्द इनके पाँच ज्ञान एक साथ नहीं हो सके अर्थात् अप्राप्यकारी मन की एक समय में अनेक पदार्थों के ऊपर अधिष्ठिति मानने पर एक साथ पाँचों ज्ञान हो जाने चाहिए और वैसा होने पर युगपत् ज्ञान के उत्पत्ति की प्रसिद्धि हो जाने से मन को साध्य करने में “युगपत् ज्ञानानुत्पत्ति', यह ज्ञापक हेतु नहीं हो सकेगा ऐसी दशा में अतीन्द्रिय अनिन्द्रिय मन की सिद्धि कैसे होगी॥६२-६३-६४॥ मन इन्द्रिय से अनधिष्ठित चक्षु किरणें यदि अपने और पदार्थों के ज्ञान को उत्पन्न कर देती हैं तो भी इस दूषण का अतिक्रमण करना दुःसाध्य है अर्थात् मन का अधिष्ठान नहीं मानने पर तो अधिक सुलभता से युगपत् पाँचों ज्ञान हो जाने चाहिए परन्तु पाँचों इन्द्रियों के द्वारा एक साथ ज्ञान नहीं होता है॥६५॥ __अतः चक्षु की रश्मियाँ काच आदि को तोड़-फोड़ कर भीतर घुस जाती हैं और प्राप्त हुए अर्थ का चाक्षुषप्रतिभास करा देती हैं। ऐसा कहना युक्त नहीं है, क्योंकि उन नेत्रों के रश्मियों का अभाव है। यदि उनका सद्भाव भी मान लिया जायेगा तो पूर्व में कहे गये दोषों का प्रसंग आता है। काच, स्फटिक आदि से आच्छादित अर्थों का चक्षु के द्वारा ग्रहण करना प्रमाण प्रतिष्ठित हो चुका है। वही चक्षु के अप्राप्यकारीपन का ज्ञापक हेतु होता हुआ वैशेषिक, नैयायिक आदि दूसरे विद्वानों के द्वारा स्वीकृत प्राप्यकारीपन के पक्ष का बाधक है॥६६-६७॥ इस प्रकार वैशेषिकों के द्वारा माने गये चक्षु के प्राप्यकारीपन पक्ष की प्रत्यक्षप्रमाण से और अनुमान प्रमाणों से आगत बाधा का निरूपण कर अब आगमप्रमाण से आगत बाधा को दिखलाते हुए ग्रन्थकार कहते संसारी आत्मा शब्द को स्पर्श करके सुनती है, रूप को बिना स्पर्श किए देखती है, उसी प्रकार स्पर्श, रस और गन्ध को बद्ध और स्पर्श करके जानती है। इस प्रकार बाधाओं से रहित प्रामाणिक आगम उस चक्षु के प्राप्यकारीपन का बाधक है, और विशुद्ध बुद्धि वाले पुरुषों के सन्मुख वह आगम चक्षु के अप्राप्यकारीपन का साधन करा देता है अतः प्रत्यक्ष, अनुमान और निर्बाध आगम, इन प्रमाणों से चक्षु के अप्राप्यकारीपना सिद्ध कर दिया गया है।६८-६९॥
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy