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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 351 निरंशोवयवी शैलो महीयानपि रोचिषा। नयनेन परिच्छेद्यो मनसाधिष्ठितेन चेत् // 57 // न स्यान्मेचकविज्ञानं नानावयवगोचरम् / तद्देशिविषयं चास्य मनोहीनैदृगंशुभिः // 58 // शैलचंद्रमसोश्चापि प्रत्यासन्नदविष्ठयोः। सहज्ञानं न युज्येत प्रसिद्धमपि सद्धियाम् // 59 // कालेन यावता शैलं प्रयांति नयनांशवः / केचिच्चंद्रमसं नान्ये तावतैवेति युज्यते // 6 // तयोश्च क्रमतो ज्ञानं यदि स्यात्ते मनोद्वयं / नान्यथैकस्य मनसस्तदधिष्ठित्यसंभवात् // 61 // विकीर्णानेकनेत्रांशुराशेरप्राप्यकारिणः। मनसोधिष्ठितौ कायस्यैकदेशेपि तिष्ठतः॥६२॥ निरंश तथा अखण्ड एक अवयवी विशाल पर्वत मन के द्वारा अधिष्ठित चक्षु के द्वारा जाना जा सकता है। इस प्रकार वैशेषिकों के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि रंग बिरंगे चित्र में अनेक अवयवों को विषय करने वाला और उस देश में स्थित अवयवों को विषय कर जानने वाला चित्रज्ञान तो मन के अधिष्ठातृत्व से रहित चक्षु किरणों के द्वारा नहीं हो सकेगा। अर्थात् - भिन्न-भिन्न देशों में पड़े हुए चित्र विचित्र रंग के अवयवों का एक ही समय चित्रज्ञान तो तब हो सकता है, जबकि अनेक अवयवों पर उसी समय नेत्र किरणे पड़ें और उन अवयवों में संयुक्त हो रही संपूर्ण किरणों के साथ मन की भी युगपत् अधिष्ठिति हो, किन्तु छोटा सा परमाणु बराबर मन अनेकदेशीय किरणों में युगपत् कैसे अधिष्ठान कर सकता है? // 5758 // ... चक्षु किरणों द्वारा विषय की प्राप्ति मानने पर अतिनिकट पर्वत का और अधिक दूरवर्ती चन्द्रमा का एक साथ ज्ञान नहीं हो सकेगा, जो कि समीचीन ज्ञान करने वाले प्रामाणिक पुरुषों के यहाँ भी प्रसिद्ध है। नयन की कितनी ही किरणें जितने काल में पर्वत को प्राप्त होती हैं, उतने ही समय में अन्य कोई किरणें चन्द्रमा को प्राप्त हो जाती हैं, ऐसा करना भी युक्त नहीं है, क्योंकि निकटवर्ती पर्वत तो झट आँखों से प्राप्त किया जा सकता है। किन्तु अधिक दूर हजारों कोस तक चन्द्रमा के पास चक्षु किरणें झट नहीं पहुँच सकती हैं। परन्तु बुद्धिमान पुरुषों को चन्द्रमा और पर्वत का या शाखा और चन्द्रमा का युगपत् चाक्षुषज्ञान होता है।५९-६०॥ यदि (वैशेषिक) कहे कि उन पर्वत और चन्द्रमा का ज्ञान क्रम से होता है, तब तो दो मन अवश्य हो जाएंगे अन्यथा (दो मन को माने बिना) दोनों का ज्ञान नहीं हो सकेगा। क्योंकि अणु प्रमाण एक मन की उन दोनों के ऊपर अधिष्ठिति होना असम्भव है॥६१॥ वैशेषिक कहते हैं कि मन इन्द्रिय तो अप्राप्यकारी है, अतः शरीर के एक देश में स्थित अप्राप्यकारी मन का फैली हुई, अनेक नेत्र किरणों की राशि के ऊपर अधिष्ठातृत्व होना सम्भव है। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर तो एक साथ उपयुक्त हो रही पाँच इन्द्रियों का अधिष्ठापक यह मन क्यों नहीं मान लिया जाता है? // 62 //
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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