________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 350 नोष्णवीर्यत्वतस्तस्य तैजसत्वं प्रसिद्ध्यति। व्यभिचारान्मरीचादिद्रव्येण तैजसेन वः // 52 // ततो नासिद्धता हेतोः सिद्धसाध्यस्य बुध्यते। चाक्षुषत्वादितो ध्वानेऽनित्यत्वस्य यथैव हि // 53 // तदेवं तैजसत्वादित्यस्य हेतोरसिद्धत्वान्न चक्षुषि रश्मिवत्त्वसिद्धिनिबंधनत्वं यतस्तस्य रश्मयोर्थप्रकाशनशक्तयः स्युः सतामपि तेषां बृहत्तरगिरिपरिच्छेदनमयुक्तं मनसोधिष्ठाने सर्वथेत्याह;संतोपि रश्मयो नेत्रे मनसाधिष्ठिता यदि। विज्ञानहेतवोर्थेषु प्राप्तेष्वेवेति मन्यते // 54 // मनसोणुत्वतश्चक्षुर्मयूखेष्वनधिष्ठितेः। भिन्नदेशेषु भूयस्त्वपरमाणुवदेकशः॥५५॥ महीयसो महीध्रस्य परिच्छित्तिर्न युज्यते। क्रमेणाधिष्ठितौ तस्य तदंशेष्वेव संविदः॥५६॥ वैशेषिक कहते हैं कि चक्षु तैजस है - उष्णवीर्य सहित होने से, जैसे कि ज्वाला। अर्थात् नेत्र में अति उष्ण शक्ति है अत: नेत्र से आँसू उष्ण निकलते हैं। नेत्र की तैजस शक्ति से दृष्टिपात होकर बालक, सुन्दर अवयव, भक्ष्य, पेय पदार्थ दृष्टिदोष से ग्रसित . हो जाते हैं। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार उष्णवीर्य युक्तपने से चक्षु का तैजसपना भी प्रसिद्ध नहीं है क्योंकि मिरच, पीपल आदि से व्यभिचार हो जायेगा, जो कि तुम वैशेषिकों के यहाँ मिरच आदि को तैजस पदार्थ नहीं माना है। अर्थात् मिरच, संखिया आदि भी बड़ी-बड़ी उष्णशक्तियों के कार्य करते हैं। पाला गिरने से वृक्ष दग्ध हो जाते हैं, किन्तु वे तैजस नहीं हैं // 52 // अतः स्वरूपासिद्ध हेत्वाभास से साध्य की सिद्धि नहीं जानी जाती है। जिस प्रकार शब्द में चाक्षुषत्व, रासनत्व आदि असिद्ध हेतुओं से अनित्यपने की सिद्धि नहीं होती है।॥५३॥ इस प्रकार “तैजसत्वात्” इस हेतु की असिद्धता हो जाने से चक्षु में तैजसत्व को ज्ञापक कारण मानकर किरणसहितपने की सिद्धि नहीं कर सकते। अथवा इस तैजसत्व हेतु को चक्षु में किरणसहितपने की सिद्धि का कारणपना नहीं है जिससे कि उस चक्षु की रश्मियाँ अर्थ को प्रकाशने की शक्तिवाली हो सकें। यदि चक्षु में किरणों का सद्भाव भी मान लिया जाए तो भी उन रश्मियों के द्वारा चक्षु से अधिक बड़े पर्वत की ज्ञप्ति करना अयुक्त होगा। अर्थात् छोटी सी चक्षुओं की किरणे कोसों दूरी पर्वत बराबर फैलकर कैसे प्रकाश करा सकती हैं? तथा वैशेषिकों द्वारा माने गये अधिष्ठाता अणु मन के द्वारा चक्षुओं का अधिष्ठान (अधिकृतपना) मानने पर तो सभी प्रकारों से महान् पर्वत की परिच्छित्ति सर्वथा नहीं हो सकती है। इसी बात को विशद रूप से आगे कहते हैं - चक्षु में मन से अधिष्ठित विद्यमान किरणें भी सम्बन्ध को प्राप्त अर्थों में विज्ञान की उत्पादक कारण हैं, ऐसा माना जाता है तब तो मन का अणुपना होने के कारण चक्षु की अनेक और लम्बी-चौड़ी भिन्न-भिन्न देशों में फैली हुई किरणों में अधिष्ठान नहीं हो सकेगा। जैसे कि एक-एक परमाणु होकर बहुत से देशों में फैल रहे परमाणुओं में एक परमाणु का युगपत् अधिष्ठातापन नहीं बन पाता है। अर्थात् एक छोटा सा परमाणु एक समय में एक ही परमाणु पर अधिकार जमा सकता है। एक परमाणु बराबर हो रहा मन असंख्य किरणों पर अपना अधिकार कैसे भी आरोपित नहीं कर सकता है। ऐसी दशा में विशाल पर्वत की चक्षुद्वारा ज्ञप्ति होना युक्त नहीं पड़ेगा। ___ उन मन की क्रम, क्रम से अनेक किरणों में अधिष्ठिति मानी जाएगी, तब तो उस पर्वत के छोटेछोटे अंशों में ही अनेक ज्ञान हो सकेंगे। एक विशाल पर्वत का एक ज्ञान नहीं हो सकेगा॥५४-५५-५६॥