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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *349 तेजोद्रव्यं ह्यनुद्भूतस्पर्शमुद्भूतरूपभृत् / दृष्टं यथा प्रदीपस्य प्रभाभारः समंततः॥४८॥ तथानुद्भूतरूपं तदुद्भूतस्पर्शमीक्षितम् / यथोष्णोदकसंयुक्तं परमुद्भूततद्वयम् // 49 // नानुद्भूतद्वयं तेजो दृष्टं चक्षुर्यतस्तथा। अदृष्टवशतस्तच्चेत्सर्वमक्षं तथा न किम् // 50 // सुवर्णघटवत्तत्स्यादित्यसिद्धं निदर्शनं। प्रमाणबलतस्तस्य तैजसत्वाप्रसिद्धितः // 51 // अनुभूतपना कैसे हो सकता ह? अर्थात् - जिस तैजस पदार्थ का उष्ण स्पर्श है, उसका रूप अवश्य उद्भूत है और जिसका रूप अनुभूत है, उसका स्पर्श अवश्य उद्भूत है। फिर नेत्र में कम-से-कम उष्ण स्पर्श या भास्वर शुक्ल दोनों में से एक तो अभिव्यक्त होना ही चाहिए। नेत्र में तेजोद्रव्य के उपजीवक भास्वररूप और उष्ण स्पर्श दोनों नहीं प्रतीत होते हैं अत: चक्षु तैजस नहीं है, पौद्गलिक है॥४७॥ जो तेजोद्रव्य अनुभूत स्पर्शवाला है, वह नियम से उद्भूतरूप को धारण किए हुए देखा गया है, जैसे कि प्रदीप का चारों ओर से फैल रहा दीप्तियों का समुदाय व्यक्त उष्ण स्पर्श वाला नहीं है। परन्तु तेजोद्रव्य के उपजीवी चमकीले उद्भूतरूप को अवश्य धारण किए हुए है। तथा जिस तेजोद्रव्य में भास्वररूप उद्भूत नहीं भी है, उसमें तेजोद्रव्य के उपयोगी उद्भूत उष्णस्पर्श अवश्य प्रतीत हो रहा है। जैसे कि उष्णजल में संयुक्त हो रहा तेजोद्रव्य उद्भूत रूपवान यद्यपि नहीं है, किन्तु उष्णस्पर्शवान अवश्य है। इस प्रकरण में यह कहना है कि उष्ण जल का उष्ण स्पर्श वस्तुत: जल का ही तदात्मक परिणाम है। जल में सूची अग्रभागों के समान घुसे हुए माने गये तेजोद्रव्य का वह औपाधिक परिणाम नहीं है। उष्ण स्पर्श यदि जल का, निज स्वभाव नहीं है, तो उष्णजल का न्यारा स्वाद भी तेजोद्रव्य का ही माना जाएगा। उष्णजल में तेजोद्रव्य उद्भूत स्पर्शवाला है। उद्भूतरूप और अनुभूतस्पर्श वाले आलोक, प्रभा, दीप्ति आदि हैं, तथा उद्भूत स्पर्श और अनुभूतरूप वाले उष्णजल संयुक्त तैजस, अग्नि आदि हैं। उक्त (इन) दोनों जाति के तैजस द्रव्यों से भिन्न जितने भी अग्नि, ज्वाला, तप्तलोह गोला आदि पदार्थ हैं, वे सब तैजस पदार्थ (उन) उद्भूत भास्वररूप और उद्भूत उष्ण स्पर्श दोनों से सहित है। उद्भूतरूप और उद्भूतस्पर्श दोनों जिसमें अप्रकट हों, ऐसा तेजोद्रव्य दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है जिससे कि चक्षु अनुद्भूतरूपवान् और अनुद्भूत स्पर्शवान् मान लिया जाए। आप यदि चक्षु को तैजसद्रव्य मानते हैं तो उद्भूतरूप और उद्भूत उष्णस्पर्श दोनों में से एक को तो अवश्य नेत्र में प्रकट मानना चाहिए। दोनों को अप्रकट मानने से तो वह नेत्र का तैजस किसी प्रकार संभव नहीं है। यदि पुण्य या पाप के वश से उस नेत्र में दोनों के उद्भूत नहीं होने पर भी तैजसपना मान लिया जाएगा अथवा तैजसनेत्र के भी किन्हीं जीवों के पुण्य, पाप अनुसार दोनों रूप-स्पर्शों का उद्भूतपना दृष्टिगत नहीं हो रहा, ऐसा स्वीकार किया जाएगा तब तो सम्पूर्ण इन्द्रियों को उस प्रकार का अनुद्भूतरूप स्पर्शवाला क्यों नहीं मान लेना चाहिए? जैसे कि नैयायिकों ने स्वर्ण के बने हुए घट में उष्णस्पर्श और भास्वररूप दोनों का अप्रकटपना माना है। इसी के समान स्पर्शन, रसना आदि इन्द्रियाँ भी तैजस हो जायेंगी अतः प्रमाणों की सामर्थ्य से उस सुवर्ण घट को तैजसपना प्रसिद्ध नहीं है अत: सिद्ध नहीं हुए दृष्टांत सुवर्णघट के बल से चक्षु में तैजसरूप और उष्णस्पर्श दोनों का अनुभूत होकर रह जाना सिद्ध नहीं हो सकता है अत: वैशेषिकों के पूर्वोक्त अनुमान से चक्षु का तैजसपना सिद्ध नहीं हो सका, उक्त दृष्टान्त स्वयं ही सिद्ध नहीं है॥४८-४९-५०-५१॥
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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