________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 348 नयानानंदहेतुत्वात्सलिलादिवदित्यनुमानात्। मूलोष्णवती प्रभा तेज इत्यागमाच्चाब्धिजलकल्लोलैश्चंद्रकांतप्रतिहताः सूर्यांशवः प्रद्योतते शिशिराश्च भवंति। तत एव नयनानंदहेतव इत्यागमस्तु न प्रमाणं, युक्त्यननुगृहीतत्वात् तथाविधागमांतरवत्। तदननुगृहीतस्यापि प्रमाणत्वेतिप्रसंगात्। पुरुषाद्वैतप्रतिपादकागमस्य प्रमाणत्वप्रसंगात् सकलयौगमतविरोधात्। किंचकिमुष्णस्पर्शविज्ञानं तैजसेक्ष्णि न जायते। तस्यानुद्भूततायां तु रूपानुद्भूतता कुतः॥४७॥ के आनन्ददाता हैं। तथा आगम प्रमाण से भी तुम्हारा हेतु बाधित है। मूल में जो उष्ण है और जिसकी प्रभा भी उष्ण है, वह तैजस पदार्थ है। जैन सिद्धान्त में सूर्य की प्रभा को उष्ण होने पर भी मूल में सूर्य को उष्ण नहीं होने के कारण तैजस नहीं माना गया है। यदि वैशेषिक यह आगम दिखलावें कि समुद्र के जल की लहरों के द्वारा चन्द्रकान्त मणि के साथ प्रतिघात को प्राप्त सर्य किरणें ही चन्द्रविमान द्वारा प्रकष्ट उद्योत कर रही हैं। अथवा सूर्यकिरणे ही समुद्र जल से टकरा कर ऊपर चन्द्रमा के भीतर से प्रकाशती हैं, या चन्द्रमा की कान्ति से टकराकर उछलती हुई सूर्य किरणें चमकती हैं और समुद्र जल का स्पर्श हो जाने से वे शीतल भी हो गयी हैं अत: नेत्रों को आनन्द देने का हेतु हो गई हैं। ___ आचार्य कहते हैं कि यह आगम तो प्रमाण नहीं है, क्योंकि युक्तियों के अनुग्रह से रहित है, जैसे कि उस प्रकार के अन्य आगम प्रमाण नहीं माने गए हैं अर्थात्-वर्तमान के कतिपय वैज्ञानिकों ने कुछ तारे ऐसे माने हैं, फैलते-फैलते भी जिनका प्रकाश असंख्य वर्षों से यहाँ पृथ्वी पर अब तक नहीं आ पाया है। ऐसा उनकी पुस्तकों में लिखा है। पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु-इन तत्त्वों को मिलाकर ही जीवात्मा बन जाती है, इत्यादि आगम या पुस्तकें अयुक्त होने के कारण जैसे प्रमाण नहीं हैं, उसी प्रकार चंद्र के निजी उद्योत को सूर्य किरणों का उद्योत कहना और समुद्र जल के स्पर्श से उन्हें शीतल कहना अयुक्त है। चन्द्रमा में खण्डित नीलमणि का टुकड़ा सरीखा काला पदार्थ जो अतिशय युक्त दीख रहा है, उस चिह्न को कोई तो कलंक ही आँका करते हैं, अन्य विद्वान समुद्र में से चली आई कीचड़ मान रहे हैं, कोई उसको हरिण कह रहे हैं, अन्य विद्वान उसको पृथ्वी की छाया कहते हैं, किन्तु कवि कहते हैं कि रात में पान कर लिया गया गाढ़ अन्धकार है परन्तु जो युक्तियों से अनुगृहीत नहीं है ऐसे चाहे जिस किसी आगम को भी यदि प्रमाण मान लिया जाएगा तो अतिप्रसंग दोष आएगा। हिंसा, झूठ आदि के प्रतिपादक भी शास्त्र कषायवान जीवों के द्वारा रचित हैं तथा भेदवादी, नैयायिक, वैशेषिक, मीमांसक आदि विद्वानों के यहाँ भी ब्रह्माद्वैत के प्रतिपादक आगम को प्रमाणपने का प्रसंग आयेगा, और ऐसा होने पर उसके साथ सम्पूर्ण नैयायिक, वैशेषिक और योग्य विद्वानों के मत का विरोध हो जाएगा, किन्तु द्वैतवादी नैयायिकों ने अद्वैत प्रतिपादक आगम को अयुक्त होने के कारण प्रमाण नहीं माना है। चक्षु को तेजोद्रव्य से निर्मित हुआ मानने पर आँख में उष्ण स्पर्श का विज्ञान उत्पन्न क्यों नहीं होता है? यदि उस तैजस नेत्र के उष्ण स्पर्श का अनुभूतपना स्वीकार करेंगे तब तो तेज के भास्वररूप का