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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 343 प्राप्तस्यांतरितार्थेन विभिन्नस्य परीक्षणात्। नार्थस्य दर्शनं सिद्ध्येदनुमा च तथैव वा // 27 // नन्वत्यंतपरोक्षत्वे सत्यार्थस्यानुमागतेः। विज्ञानस्योपरक्तत्वे तेन विज्ञायते कथम् // 28 // तथा शश्वददृश्येन वेधसा निर्मितं जगत् / कथं निश्चीयते कार्यविशेषाच्चेत्परैरपि // 29 // ___यथैवात्रास्मदादिविनिर्मितेतरच्छरीरादिविशिष्टं कार्यमुपलभ्य तस्येश्वरेणात्यंतपरोक्षेण निर्मितत्वमनुमीयते भवता तथा परैरपि विज्ञानं नीलाद्यर्थाकारविशिष्टं कार्यमभिसंवेद्य नीलाद्यर्थोनुमीयत इति समं पश्यामः / यथा च काचाद्यंतरितार्थे प्रत्यक्षता व्यवहारो विभ्रमवशादेवं बहिरर्थेपीति कुतो मतांतरं निराक्रियते?॥ वैशेषिक-मतानसार यदि स्फटिक, काच आदि का पुनः-पुनः सर्वथा उत्पाद और त्वरित-त्वरित विनाश माना जायेगा तो स्फटिक आदि में चाक्षुषप्रत्यक्ष और स्पार्शन प्रत्यक्षों को अन्तराल सहित हो जाने का प्रसंग आ जाना दुर्निवार होगा। अर्थात् स्फटिक के उत्पाद होने पर उसका दर्शन और स्पर्शन तथा स्फटिक के शीघ्र नाश होने पर उसका अदर्शन और अस्पर्शन होता रहेगा। उसी स्फटिक की उत्तर-उत्तर सदृश पर्यायों में “यह वही स्फटिक है," ऐसा वह स्फटिक अर्थ अनुमान से ज्ञात हो जाता है। ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि उन द्रष्टा, स्पृष्टा जीवों के काच आदिक के ज्ञान को भ्रान्तपना नहीं है। ज्ञेय अर्थ का ज्ञान में आकार पड़कर उपराग युक्त हो रहे विज्ञान का उद्भव हम स्याद्वादियों के यहाँ नहीं माना गया है। स्फटिक, काच आदि से व्यवहित हो रहे अर्थ के साथ चारों ओर से प्राप्त चक्षु के द्वारा टूटे-फूटे स्फटिक का दीखना नहीं होता है। अतः चक्षु द्वारा प्राप्त अर्थ का देखना प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा सिद्ध नहीं हो सकेगा और उसी प्रकार के पूर्वोक्त अनुमान द्वारा चक्षु का अप्राप्यकारित्व सिद्ध हो चुका है॥२७॥ . वैशेषिक कहता है कि स्वलक्षणस्वरूप पदार्थों के अत्यन्त परोक्ष मानने पर बौद्धों के यहाँ अर्थ की अनुमान द्वारा भी ज्ञप्ति कैसे होगी? विज्ञान को अर्थ आकार से प्रतिबिम्बित मानने पर उस ज्ञान के द्वारा अत्यन्त परोक्ष या भूत, भविष्यत् अर्थ कैसे जाना जा सकता है? // 28 // वैशेषिकों के यहाँ भी सर्वदा अदृश्य ईश्वर के द्वारा निर्माण किया गया यह जगत् है, यह कैसे निर्णीत किया जाता है? यदि विशेष कार्यों से सर्वज्ञ, सर्व शक्तिमान्, ईश्वर, स्रष्टा का अनुमान करोगे तो बौद्धों के द्वारा भी उसी प्रकार अत्यन्त परोक्ष अर्थ का अनुमान किया जा सकता है॥२९॥ जिस प्रकार ईश्वरसिद्धि के अवसर पर हम आदि साधारण जीवों द्वारा बनाए गए घट आदि से विभिन्न जाति के शरीर आदि विलक्षण कार्यों को देखकर उनका अत्यन्त परोक्ष ईश्वर से निर्मितपना अनुमान द्वारा जान लिया जाता है, ऐसा आपने (वैशेषिकों ने) माना है, उसी प्रकार अन्य बौद्धों के द्वारा भी नील, पीत आदि अर्थों के आकार से विशिष्ट विज्ञानस्वरूप कार्य को देखकर नील आदि अर्थों का अनुमान कर लिया जाता है। इस प्रकार हम जैन तुम बौद्ध और वैशेषिकों के यहाँ समानरूप से होना देख रहे हैं। जिस प्रकार काच आदि से व्यवहित अर्थ के प्रत्यक्ष हो जानेपन का व्यवहार वैशेषिकों के यहाँ भ्रान्तिवश होता है, उसी प्रकार विज्ञानाद्वैतवादी बौद्धों के यहाँ बहिरंग अर्थ में भी भ्रमवश ज्ञान होता है - ऐसा मान लिया जाता है। इस प्रकार तुम वैशेषिक उन बौद्धों के दूसरे मत का निराकरण कैसे कर सकोगे? अर्थात् नहीं कर सकते।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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