________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 342 चानाद्यनंतसर्वात्मकं च वस्तु प्रतिभाति यतस्तथाभ्युपगमः श्रेयान् / नाप्यभाव एव वस्तुनोनुभूयते पररूपादिचतुष्टयेनेव स्वरूपादिचतुष्टयेनाप्यभावप्रतिपत्तिप्रसंगात् / न च सर्वथाप्यसत्प्रतिभाति यतस्तदभ्युपगमोपि कस्यचित्प्रतितिष्ठेत् / प्ररूपितप्रायं च भावाभावस्वभाववस्तुप्रतिभासनमिति कृतं प्रपंचेन / सर्वथोत्पादे विनाशे च पुनः पुनः स्फटिकादौ दर्शनस्पर्शनयोः सांतरयोः प्रसंजनस्य दुर्निवारत्वात्। तदर्थोनुमीयेतेतिचेन्न, तेषां काचादेर्न भ्रांतत्वमर्थोपरक्तस्य विज्ञानस्यानुद्गतिर्नः (?) // भावार्थ : “सदेव सर्वं को नेच्छेत् स्वरूपादि चतुष्टयात्" वस्तु अपने स्वरूप नित्य गुण, पर्याय, अविभाग प्रतिच्छेद, नैमित्तिकस्वभाव, पर्याय शक्तियाँ, अशुद्ध द्रव्य के कालान्तर स्थायी गुण आदि स्वकीय शरीर के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से सत्स्वरूप है। वस्तु यदि सर्वथा भावरूप ही होती तो उसमें प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, इतरेतराभाव, अत्यन्ताभाव नहीं पाये जाते और ऐसा होने पर वस्तु अनादि, अनन्त, सर्वात्मक हो जाती। अर्थात् प्रागभाव को माने बिना सम्पूर्ण घट, पट आदि पदार्थ अनादि से चले आरहे हो जाते क्योंकि प्रागभाव ही तो कार्य उत्पत्ति के प्रथम समय तक उन घटआदि के सद्भाव को रोके हुए था। जब प्रागभाव ही नहीं माना जा रहा है तो द्रव्यों की सम्पूर्ण कार्य पर्यायें अनादिकालीन हो जायेंगी और ध्वंस के नहीं मानने पर सम्पूर्ण पर्यायें अनंतकाल तक ठहरने वाली हो जाएंगी तथा एक द्रव्य की विवक्षित पर्यायों का अन्य पर्यायों में यदि अन्योन्याभाव नहीं माना जायेगा तो जो पर्याय चाहे जिस पर्यायस्वरूप हो जायेगी। जब परस्पर परिहार को करने वाला अन्योन्याभाव नहीं माना जाता है तो अन्योन्य में भेद, परस्पर में वस्तु में भेद नहीं होगा। इसी प्रकार एक द्रव्य या उसकी पर्यायों का दूसरे द्रव्य अथवा उसकी पर्यायों में त्रिकाल रहने वाला अत्यन्ताभाव नहीं माना जाएगा तो सर्व पदार्थ एक हो जायेंगे। अत्यन्ताभाव के बिना उक्त प्रकार के सांकर्य को कौन रोक सकता अत: जैन सिद्धान्तानुसार द्रव्य, गुण पर्यायें, स्वरूप वस्तुएँ अपने-अपने स्वरूप में स्थित हैं और वे पदार्थ अनादि अनन्त सर्व आत्मक प्रतिभासित नहीं होते हैं जिससे कि इस प्रकार वस्तु का सद्भाव ही स्वीकार करना श्रेष्ठ समझा जाए। वस्तुतः भाव अभाव दोनों स्वभावों के तादात्म्य से पदार्थ गुंथे हुए हैं। ऐसा देवागम स्तोत्र में लिखा है। अभाव एकान्त का निराकरण : वस्तु का सर्वथा अभाव ही अनुभव में नहीं आ रहा है। क्योंकि पररूप आदि के चतुष्टय से जैसे अभाव माना जा रहा है, उसी के समान स्वरूप आदि के चतुष्टय से भी वस्तु के अभाव का ज्ञान होने का प्रसंग आयेगा। सर्वथा असत् वस्तु तो प्रतिभासित नहीं होती है जिससे कि उस अभाव एकांत का स्वीकार करना किसी शून्यवादी या तत्त्वोपप्लववादी का प्रतिष्ठित हो सके। सभी प्रामाणिक विद्वानों को भाव और अभावस्वरूप वस्तु का प्रतिभास हो रहा है। इसका पूर्व में वर्णन किया गया है अतः यहाँ अधिक विस्तार रूप कथन करने से क्या लाभ?