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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक* 338 निष्ठुरस्थिरस्वभावान् स्फटिकादीन् विभज्य नयनरश्मयः प्रकाशयंति / न पुनर्मुदुनाशिस्वभावांस्तूलराश्यादीनिति किमत्यद्भुतमाश्रित्य हेतोरसिद्धतामुद्भावयतः कथं स्वस्थाः? // सामर्थ्यं पारदीयस्य यथाऽऽयस्यानुभेदने। नालांबूभाजनोद्भेदे मनागपि समीक्ष्यते // 18 // काचादिभेदने शक्तिस्तथा नयनरोचिषां। संभाव्या तूलराश्यादिभिदायां नेति केचन // 19 // तदप्रातीतिकं सोयं काचादिरिति निश्चयात्। विनाशव्यवहारस्य तत्राभावाच्च कस्यचित् // 20 // भावार्थ : जो स्फटिक लोहे की छैनी से भी नहीं कटता है, उसको यदि चक्षु की तैजस किरणे तोड़-फोड़ कर भीतर घुस जाती हैं, तो कोमल रुई आदि में तो सुलभता से घुसकर उनके नीचे रखे हुए पदार्थ का प्रत्यक्ष कर लेना चाहिए इसमें कौनसी बाधा है? अतीव कठिन तथा स्थिर स्वभाव वाले स्फटिक आदि पदार्थों को चीरकर उनसे व्यवहित पदार्थों के साथ भीतर संयुक्त होकर चक्षु की किरणें उन्हें प्रकाशित कर देती हैं। किन्तु फिर अधिक मृदु और अल्पकाल में नाश स्वभाव वाले रुई पिण्ड आदि पदार्थों को भेदकर इनसे व्यवहित पदार्थों को अथवा रुई आदि के मोटे मध्य भाग या तलभाग को प्रकाशित नहीं करती हैं यह सिद्धान्त तो आश्चर्यकारी है। इस प्रकार हमारे काचाद्यंतरित अर्थग्रहण हेतु की असिद्धता का उद्भावन करने वाले विद्वान् आत्मस्वभाव में स्थित कैसे कहे जा सकते हैं? जिस प्रकार लोहे के बने हुए पदार्थों को भेदने में पारे से बने हुए पदार्थ का सामर्थ्य देखा जाता है, किन्तु तूम्बीपात्र को भेदने में पारे की बनी हुई रसायन का सामर्थ्य किंचित् भी नहीं देखा जाता है। उसी प्रकार नयनकिरणों की शक्ति काच, अभ्रक आदि का भेद करने में पर्याप्त है, किन्तु कपासपिण्ड आदि को भेदने में चक्षुकिरणों का सामर्थ्य संभव नहीं है। इस प्रकार किसी के कहने पर आचार्य कहते हैं कि उनका यह कहना प्रतीतियों द्वारा सिद्ध नहीं है क्योंकि ये वे ही काच, स्फटिक आदि हैं - इस प्रकार प्रत्यभिज्ञान द्वारा निश्चय हो रहा है। उनमें किसी भी जीव को विनष्टपने का व्यवहार नहीं होता है। चक्षु की रश्मियाँ यदि काच आदि को भेद देतीं तो वे अवश्य टूट-फूट कर नष्ट हो जाते। किन्तु काच आदि को देखने वाले जीव “यह वही काच है, जिसको मैं एक घड़ी पहिले से बराबर देख रहा हूँ" ऐसा एकत्व प्रत्यभिज्ञान जगत् प्रसिद्ध है अतः चक्षु किरणों का काच आदि में प्रवेश कैसे भी संभव नहीं है॥१८-१९-२०॥ उस काच, स्फटिक आदि का नाश होकर समान रचना वाले उनकी पुनः शीघ्र उत्पत्ति हो जाती है। इसलिए स्थूल दृष्टि वाला मनुष्य उसके नाश को नहीं जानकर वैसा ही मान लेता है, जैसे कि काट दिये गये और फिर नये उत्पन्न हुए केश, नख आदि का ये वे ही हैं, ऐसा प्रत्यभिज्ञान कर लेता है। अर्थात्स्फटिक, काच, बार-बार टूट-फूट कर शीघ्र नवीन बन जाता है, परन्तु मन्द बुद्धि उसको नहीं जान सकता। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार मानने पर तो कहीं भी पदार्थ में “यह नहीं है," ऐसा प्रत्यभिज्ञान उसके एकत्व का साधक सिद्ध नहीं हो सकेगा और ऐसी दशा में सम्पूर्ण जगत् क्षणध्वंसी है, ऐसा बौद्ध सिद्धान्त
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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