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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्बिक * 339 समानसन्निवेशस्य तस्योत्पत्तेरनाशिता। जनो मन्येत निनकेशादेर्वेति चेन्मतम् // 21 // न क्वचित्प्रत्यभिज्ञानमेकत्वस्य प्रसाधकं। सिद्ध्येदिति क्षणध्वंसि जगदापातमंजसा // 22 // आत्माद्येकत्वसिद्धिश्चेत्प्रत्यभिज्ञानतो दृढात् / दायात्तत्र कुतो बाधाभावाच्चेत्प्रकृते समं // 23 // न हि स्फटिकादौ प्रत्यभिज्ञानस्यैकत्वपरामर्शिनः किंचिद्बाधकमस्ति पुरुषादिवत्। तद्भेदनाभ्युपगमे तु बाधकमस्तीत्याह;काचाद्यंतरितानर्थान् पश्यतश्च निरंतरं। तत्र भेदस्य निष्ठानान्नाभिन्नस्य करग्रहः // 24 // सततं पश्यतो हि काचशिलादीन्नयनरश्मयो निरंतरं भिदंतीति प्रतिष्ठायां कथमभिन्नस्वभावानां तथा तस्य हस्तेन ग्रहणं तच्चेदस्ति तद्भेदाभ्युपगमं बाधिष्यत इति किं नश्चिंतया॥ सिद्ध हो जाएगा। तथा आत्मा आदि भी क्षणिक हो जाएंगे। “यह वही आत्मा है"-इस एकत्व प्रत्यभिज्ञान को आभास मानकर स्फटिक के समान सदृश सन्निवेश वाले दूसरे आत्मा की शीघ्र उत्पत्ति मानकर आत्मा में क्षणिकत्व मान लिया जाएगा। यदि वैशेषिक कहें कि एकत्व को साधने वाले दृढ़ प्रत्यभिज्ञान से आत्मा, आकाश आदि के एकत्व की सिद्धि कर लेंगे, तब तो उस एकत्व साधक प्रत्यभिज्ञान में दृढ़ता किससे आएगी? यदि बाधा रहित होने से प्रत्यभिज्ञान की दृढ़ता मानी जाएगी, तब तो आत्मा के एकपन को साधने वाले प्रत्यभिज्ञान के समान प्रकरण प्राप्त स्फटिक के एकपन को साधने वाले प्रत्यभिज्ञान में भी वैसी ही दृढ़ता विद्यमान है अर्थात् स्फटिक टूटा-फूटा नहीं है वह का वही है, यह निर्बाध प्रतीति है। अतः इसको भी स्वीकार करना चाहिए // 21-22-23 // स्फटिक, काच आदि विषयों में एकत्व को सिद्ध करने वाले प्रत्यभिज्ञान प्रमाण का बाधक कोई प्रमाण नहीं है, जैसे कि आत्मा, आकाश आदि के एकत्व प्रत्यभिज्ञान का कोई बाधक नहीं है। . प्रत्युत वैशेषिकों के अनुसार उन स्फटिक, अभ्रक आदि का छेदन, भेदन स्वीकार करने में बाधक प्रमाण मिल जाता है। इसी बात को आचार्य कहते हैं - - तथा ऐसा मानने पर काच, स्फटिक आदि से व्यवहित अर्थों को निरंतर देखने वाले पुरुष को उसी अभिन्न काच आदि का हाथ से ग्रहण नहीं हो सकेगा क्योंकि वैशेषिक मतानुसार नयनरश्मियों के द्वारा उन काच आदि का फूट जाना सिद्ध हो चुका है। जो पदार्थ टूट-फूट चुका है, उसी पदार्थ का फिर हाथ द्वारा पकड़ना नहीं हो सकता है॥२४॥ - सतत काच, शिला, स्फटिक, माला आदि को देखने वाले पुरुष की चक्षुरश्मियाँ निरन्तर उनको तोड़ती-फोड़ती रहती हैं। इस प्रकार वैशेषिक मन्तव्यानुसार सिद्ध हो जाने पर यह बताओ कि उन्हीं अभिन्न स्वभाव वाले काचशिला आदि पदार्थों का उसी प्रकार उस देखने वाले के हाथ से ग्रहण कैसे हो जाता है? अर्थात् जैसे मुद्गर, मोंगरा से घड़े के चकनाचूर हो जाने पर उसी परिपूर्ण घड़े का फिर हाथ से पकड़ना नहीं होता है,इसी प्रकार चक्षु किरणों द्वारा स्फटिक का छेदन भेदन हो जाने पर पुनः उन्हीं स्फटिक, काच आदि का ग्रहण नहीं हो सकेगा, किन्तु उन्हीं स्फटिक आदि का वह ग्रहण होता हुआ देखा जाता है। वह
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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