________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 337 काचाद्यंतरितार्थानां ग्रहाच्चाप्राप्तकारिता। चक्षुषः प्राप्यकारित्वे मनसः स्पर्शनादिवत् // 16 // ननु च यद्यंतरितार्थग्रहणं स्वभावकालांतरितार्थग्रहणमिष्यते तदा न सिद्धं साधनं चक्षुषि तदभावात्। देशांतरितार्थग्रहणं चेत्तदेव साध्यं साधनं चेत्यायातं / देशांतरितार्थग्राहित्वमेव ह्यप्राप्यकारित्वमिति कश्चित् , तदसत्। चक्षुषोप्राप्तमर्थं परिच्छेत्तुं शक्तेः साध्यत्वात्तत्राप्रसिद्धत्वादप्राप्तकारणशक्तित्वस्याप्राप्यकारित्वस्येष्टत्वात् / साधनस्य पुनरंतरितार्थग्रहणस्य स्वसंवेदनप्रत्यक्षसिद्धस्याभिधानात्। ननु च काचाद्यंतरितार्थस्य प्राप्तस्यैव चक्षुषा परिच्छेदादसिद्धो हेतुरित्याशंकां परिहरन्नाह;विभज्य स्फटिकादींश्चेत्कथंचिच्चक्षुरंशवः / प्राप्नुवंस्तूलराश्यादीन्नश्वरान्नेति चाद्भुतम् // 17 // काच, अभ्रक आदि से व्यवहित हो रहे पदार्थों का ग्रहण करने वाली होने से चक्षु के अप्राप्यकारीपना है, जैसे कि स्पर्शन, रसना आदि इन्द्रियों के समान चक्षु को भी प्राप्यकारी मानने पर चक्षु के द्वारा काच आदि से व्यवहित पदार्थ का ग्रहण नहीं हो सकेगा। अर्थात्-स्पर्शन, रसना इन्द्रियों के द्वारा काच आदि से व्यवहित पदार्थों का ज्ञान नहीं होता है, परन्तु चक्षु के द्वारा तो होता है, अतः चक्षु अप्राप्यकारी है॥१६॥ - शंका : यदि अन्तरित अर्थ का ग्रहण करना है तो स्वभावव्यवहित कालव्यवहित पदार्थों का ग्रहण करना जैनों द्वारा इष्ट किया गया है, तब तो हेतु सिद्ध नहीं है अर्थात्-असिद्ध हेत्वाभास है क्योंकि, चक्षु रूप पक्ष में वह स्वभावव्यवहित, कालव्यवहित अर्थ का ग्रहण करना हेतु नहीं है। यदि अन्तरितार्थ ग्रहण का अर्थ देशव्यवहित अर्थ का ग्रहण करना माना जायेगा तब तो वही साध्य और वही साधन हो जाता है क्योंकि देशांतरित अर्थ का ग्राहकपना (हेतु) ही तो नियम से अप्राप्यकारीपना है। दूरवर्ती पदार्थों को नहीं संबद्ध कर जान लेना साध्य ही तो देशान्तरित अर्थ का ग्राहकपना है। ऐसा कोई कहता है। समाधान : उपर्युक्त कहना सत्यार्थ नहीं है, क्योंकि असंबद्ध अर्थ को जानने के लिए चक्षु की शक्ति है। अर्थात् चक्षु अप्राप्त अर्थ को जानने में समर्थ है, प्राप्य को नहीं अत: साध्य का अर्थ यही है। - अप्राप्त अर्थ का ज्ञान करा देने की कारणशक्ति से सहितपने को ही अप्राप्यकारीपना इष्ट किया है अतः शक्य, अप्रसिद्ध और इष्ट ऐसा साध्य अप्राप्यकारीपन है। तथा फिर स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष द्वारा प्रसिद्ध हो रहे अन्तरितार्थ ग्रहण को हेतु स्वरूप का कथन किया है। देशान्तरवर्ती पदार्थ का चक्षु द्वारा ग्रहण सबको स्वसंवेदन से सिद्ध है अत: यह दोनों प्रतिवादियों के यहाँ प्रसिद्ध हेतु है। शंका : काच, अभ्रक आदि से देशव्यवहित पदार्थों के साथ चक्षु का सम्बन्ध हो जाने पर ही उनका चक्षु द्वारा परिच्छेद होता है अतः चक्षु को अप्राप्यकारित्व सिद्ध करने में दिया गया काचाद्यंतरित अर्थग्रहण हेतु पक्ष में नहीं रहने के कारण असिद्ध हेत्वाभास है। इस आशंका का परिहार करते हुए श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं - यदि स्फटिक आदि कठोर पदार्थों को कथंचित् तोड़-फोड़ कर चक्षु की किरणें भीतर अर्थ के साथ प्राप्त हो जाती हैं, और नाशशील अति कोमल रुई की राशि, आदि को भेदकर भीतर घुस कर उनसे व्यवहित मनुष्य आदि का चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं कराती है, यह बड़े आश्चर्य की बात है॥१७॥