________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*३३६ चक्षुरेव ह्यत्रपक्षीकृतं न पुनर्मनस्तस्याप्राप्यकारित्वेन प्रसिद्धत्वात् स्वयमप्रसिद्धस्य साध्यत्वेन व्यवस्थापनात्। न चेदमप्रसिद्धमित्याह;मनसोऽप्राप्यकारित्वं नाप्रसिद्धं प्रवादिनाम् / क्वान्यथातीतदूरादिपदार्थग्रहणं ततः॥१५॥ न ह्यतीतादयो दूरस्थार्था मनसा प्राप्यकारिणा विषयीकर्तुं शक्या इति सर्वैः प्रवादिभिरप्राप्यकारि तदंगीकर्तव्यमन्यथातीतदूरादिवस्तुपरिच्छित्तेरनुपपत्तेः / ततो न पक्षाव्यापको हेतुः स्पृष्टानवग्रहादिति पक्षीकृते चक्षुषि भावात्। नाप्यनैकांतिको विरुद्धो वा प्राप्यकारिणि विपक्षे स्पर्शनादावसंभवादित्यतो हेतोर्भवत्येव साध्यसिद्धिः / / इतश्च भवतीत्याह; का अप्राप्यकारीपना अन्य हेतु से सिद्ध किया गया है जैसे शरीर के सम्पूर्ण प्रदेशों में सुख, दुःख आदि का अवग्रह कराने वाला होने से अथवा भूत, भविष्य या दूरवर्ती पदार्थों का विचार करने वाला होने से मन अप्राप्यकारी है॥१४॥ इस प्रकरणगत अनुमान में अकेला चक्षु ही पक्ष है, किन्तु मन को पक्ष नहीं किया गया है, क्योंकि मन की सभी के यहाँ अप्राप्यकारीपन से प्रसिद्धि है। अर्थात् नैयायिक, वैशेषिकों ने भी मन को प्रथम से ही अप्राप्यकारी स्वीकृत किया है। स्वयं अप्रसिद्ध को ही साध्यरूप से व्यवस्थापित किया गया है। .. मन का अप्राप्यकारित्व अप्रसिद्ध नहीं है अर्थात् प्रसिद्ध ही है। इस बात को आचार्य कहते हैं नैयायिक, मीमांसक आदि प्रवादियों के यहाँ मन, इन्द्रिय का अप्राप्यकारीपना अप्रसिद्ध नहीं है। अन्यथा (मन को अप्राप्यकारीपन माने बिना) उस मन से अतीत काल के या दूर देशवर्ती पदार्थों का ग्रहण कैसे हो सकेगा? अर्थात्-मन को अप्राप्यकारी मानने पर ही भूत, भविष्य, दूर, अतिदूरवर्ती पदार्थों का ज्ञान हो सकेगा, अतः मन अप्राप्यकारी सिद्ध है॥१५॥ अतीत आदि कालों में रहने वाले अथवा दूर देश में स्थित अर्थ मन को प्राप्यकारी मानने पर उस प्राप्यकारी मन के द्वारा विषय नहीं किये जा सकते हैं। अर्थात्-जब वे पदार्थ वर्तमान काल, देश में विद्यमान ही नहीं हैं, तो उनके साथ मन का सम्बन्ध कथमपि नहीं हो सकता है अत: सभी प्रवादियों के द्वारा वह मन इन्द्रिय अप्राप्यकारी है ऐसा अंगीकार करना चाहिए। अन्यथा (मन को अप्राप्यकारी माने बिना) मन के द्वारा अतीत-कालीन तथा दूरदेश आदि में रहने वाले पदार्थों की परिच्छित्ति होना नहीं बन सकती। अतः "स्पृष्टानवग्रहात्” यह हेतु पक्षाव्यापक नहीं है क्योंकि यह हेतु पक्षीकृत चक्षु में पूर्णरूप से विद्यमान है। यह स्पृष्टानवग्रह हेतु अनैकान्तिक अथवा विरुद्धहेत्वाभास भी नहीं है क्योंकि, यह हेतु स्पर्शन, रसना इन्द्रिय आदि विपक्ष में संभव नहीं है। इसलिए इस स्पृष्टानवग्रह निर्दोष हेतु से अप्राप्त अर्थ के परिच्छेदित्व साध्य की सिद्धि हो ही जाती है। दूसरे, इस हेतु से भी अप्राप्यकारीपन साध्य की चक्षु में सिद्धि होजाती है। इस बात को आचार्य कहते हैं -