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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 29 ततः परं च विज्ञानं किमर्थमुपकल्प्यते। कादाचित्कत्वसिद्ध्यर्थमर्थज्ञप्तेन सा परा // 39 // विज्ञानादित्यनध्यक्षात् कुतो विज्ञायते परैः। लिंगाच्चेत्तत्परिच्छित्तिरपि लिंगांतरादिति // 40 // क्वावस्थानमनेनैव तत्रार्थापत्तिराहता। अविज्ञातस्य सर्वस्य ज्ञापकत्वविरोधतः॥ 41 // - स्वतः प्रत्यक्षादर्थात्परं विज्ञानं किमर्थं चोपकल्पित इति च वक्तव्यं परैः कादाचित्कत्वसिद्ध्यर्थमर्थज्ञप्तेरिति चेत् , उच्यते / न सा परा विज्ञानात् ततो नाध्यक्षा सती कुतो विज्ञातव्या? लिंगाच्चेत्तत्परिच्छित्तिरपि लिंगांतरादेव इत्येतदुपस्थापनविरोधाविशेषात् / अर्थापत्त्यंतरात्तस्य ज्ञानेनवस्थानात् / ___ मीमांसक के कथन में अर्थ की ज्ञप्ति यदि प्रत्यक्षरूप ज्ञान से होती है तो उससे पृथक् करणज्ञान पुनः किस प्रयोजन के लिये कल्पित किया जाता है ? यदि अर्थज्ञप्ति के कभी-कभी होने की सिद्धि के लिए प्रमाणात्मक करणज्ञान एक द्वार माना गया है तो वह अर्थज्ञप्ति तो ज्ञान से भिन्न कोई अलग वस्तु नहीं है। यदि परोक्ष करणज्ञान से प्रत्यक्षज्ञप्ति को भिन्न माना जाएगा तो वह दूसरों के द्वारा कैसे जानी जा सकेगी ? यदि किसी अविनाभावी हेतु से उस अर्थज्ञप्ति का ज्ञान करोगे तो उस हेतु का ज्ञान भी अन्य हेतुओं से जाना जा सकेगा और उनं तीसरे हेतुओं का ज्ञान भी चौथे आदि हेतुओं से ज्ञात होगा। इस प्रकार कहाँ अवस्थिति होगी ? ऐसे तो अनवस्था दोष हो जायेगा। इस कथन से अर्थापत्ति के द्वारा हेतुओं का ज्ञान मानने पर अनवस्था हो जाने के कारण वहाँ अर्थापत्ति भी नहीं हो सकती। नहीं जाने हुए सब ज्ञापकों को ज्ञापकपन का विरोध है॥३९-४०-४१॥ . भावार्थ : 'नाज्ञातं ज्ञापकं'। अर्थज्ञप्ति और उसको जताने वाले हेतु ज्ञापक हैं। अत: उनका ज्ञान होना आवश्यक है। कारक हेतु तो अज्ञात होकर भी कार्य को कर देता है, किन्तु ज्ञापक हेतु तो ज्ञात होकर ही अन्य पदार्थ को समझाता है, अन्यथा नहीं। जब अर्थ अपने आप ही प्रत्यक्ष होता है, तो उससे भिन्न परोक्षविज्ञान किसलिए कल्पित किया गया है ? इसका प्रतिपक्षी मीमांसकों द्वारा स्पष्टीकरण होना चाहिए। यदि अर्थ की ज्ञप्ति की सिद्धि के लिए कदाचित् परोक्षज्ञान की कल्पना करते हो तो वह अर्थ से अपृथक्भूत अर्थज्ञप्ति परोक्षरूप विज्ञान से अभिन्न अनध्यक्ष होती हुई वह अर्थज्ञप्ति फिर किससे जानने योग्य है ? यदि हेतु से उस अर्थज्ञप्ति का ज्ञान करोगे तो उस ज्ञापक हेतु की ज्ञप्ति भी अन्य लिंग से ही होगी और उस लिंग की भी अन्य हेतुओं से ज्ञप्ति होगी। इस प्रकार यह अनेक हेतुमालाओं के उठाने से विरोध उपस्थित होगा क्योंकि, नहीं जाना गया पना सब हेतुओं में विशेषता रहित है। यदि अन्य अर्थापत्तियों से उसका ज्ञान करोगे तो अनवस्था दोष आयेगा अतः ज्ञान का स्वतः प्रत्यक्ष होना माना जाना चाहिए। ज्ञान जब घट, पट आदि को जानता है, तभी अपनी उन्मुखता से स्वयं को भी जानता है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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