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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 28 सर्वज्ञानमनध्यक्षं प्रत्यक्षोर्थः परिस्फुटः। इति केचिदनात्मज्ञाः प्रमाणव्याहतं विदुः // 36 // परोक्षा नो बुद्धिः प्रत्यक्षोर्थः स हि बहिर्देशसंबंधः प्रत्यक्षमनुभूयत इति केचित् संप्रतिपन्नास्तेप्यनात्मज्ञा प्रमाणव्याहताभिधायित्वात्॥ प्रत्यक्षमात्मनि ज्ञानमपरत्रानुमानिकम् / प्रत्यात्मवेद्यमाहंति तत्परोक्षत्वकल्पनाम् // 37 // साक्षात्प्रतिभासमानं हि प्रत्यक्षं स्वस्मिन् विज्ञानमनुमेयमपरत्र व्याहारादेरिति प्रत्यात्मवेद्यं सर्वस्य ज्ञानपरोक्षत्वकल्पनामाहत्येव / / किंचविज्ञानस्य परोक्षत्वे प्रत्यक्षोर्थः स्वतः कथम्। सर्वदा सर्वथा सर्वः सर्वस्य न तथा भवेत् // 38 // __ ग्राहकपरोक्षत्वेपि सर्वदा सर्वथा सर्वस्य पुंसः कस्यचिदेव स्वतः प्रत्यक्षोर्थ:कश्चित्कदाचित्कथंचिदिति व्याहततरां॥ प्रत्यक्ष अर्थ का परिस्फुट करने वाला (विशद रूप से जानने वाला) प्रत्यक्ष, अनुमान आदि सब ही ज्ञान परोक्षरूप है। अर्थात् जैनों के सिद्धांत के अनुसार सभी प्रत्यक्ष, अनुमान, संशय, विपर्यय आदि ज्ञानों का स्वांश में स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना हम मीमांसकों को इष्ट नहीं है-इस प्रकार कोई मीमांसक कहता है। आचार्य कहते हैं कि ज्ञानस्वरूप अपनी आत्मा को नहीं जानने वाले भी प्रमाणों से व्याघात दोष को प्राप्त होते हैं॥३६॥ सर्व ही ज्ञान अपना संवेदन करने के लिए प्रत्यक्ष हैं इसकी सिद्धि : हमारी परोक्ष बुद्धि बहिर्देश सम्बन्धी प्रत्यक्ष अर्थ का प्रत्यक्ष अनुभव करती है, ऐसा कोई (मीमांसक) कहता है-वह भी आत्मतत्त्व को जानने वाला नहीं है क्योंकि वह प्रमाणों से व्याहत पदार्थों का कथन कर रहा है। अर्थात् इन्द्रिय प्रत्यक्ष (सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष) के द्वारा बाह्य पदार्थों को तो प्रत्यक्ष स्वीकार करते हैं और स्वसंवेदन के द्वारा आत्मा का प्रत्यक्ष अनुभव नहीं करता है, ऐसा किस प्रकार सिद्ध कर सकता है अर्थात् नहीं कर सकता है ? अपितु अपनी आत्मा का प्रत्यक्ष स्वसंवेदन होना सिद्ध है। अपनी आत्मा में तो वह ज्ञान स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से प्रतिभासित है और दूसरे आत्माओं में उत्पन्न हुआ ज्ञान प्रत्यक्ष है, इस बात को हम अनुमान द्वारा जान लेते हैं। अतः प्रत्येक आत्मा में स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से ज्ञान का प्रत्यक्षपना ज्ञान की परोक्षपने की कल्पना को नष्ट कर देता है अतः सम्पूर्ण ज्ञान स्वांश को जानने में प्रत्यक्ष प्रमाण रूप है॥३७॥ अपने में तो साक्षात् रूप से प्रत्यक्ष प्रतिभासमान ज्ञान है ही और दूसरों की आत्मा में अपने-अपने ज्ञान की प्रत्यक्षता हम वचनकुशलता, चेष्टा, प्रवृत्ति, स्मरण होना आदि व्यवहार से अनुमान कर लेते हैं। अतः प्रत्येक आत्मा में अपने-अपने स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से जाना गया ज्ञान सभी ज्ञानों के स्वांश में परोक्षपने की कल्पना को समूल नष्ट कर ही देता है। अथवा, विज्ञान को सर्वथा परोक्ष मानने पर सभी जीवों के सदा,सभी प्रकार से, सम्पूर्ण पदार्थ उस प्रकार स्वतः ही प्रत्यक्ष क्यों नहीं हो जाते ? // 38 // पदार्थों को ग्रहण करने वाले ज्ञान का परोक्षपना होते हुए भी सदा सभी प्रकार सभी जीवों में से किसी एक जीव के किसी समय किसी प्रकार कोई एक अर्थ का ही स्वतः प्रत्यक्ष होता है, यह कहना तो पूर्वापर वचनों का प्रकृष्ट रूप से अत्यधिक व्याघात करना है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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