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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 27 शब्दं श्रुत्वा तदर्थानामवधारणमिष्यते। यैः श्रुतं तैर्न लभ्येत नेत्रादिमतिजं श्रुतम् // 34 // यदि पुना रूपादीनुपलभ्य तदविनाभाविनामर्थानामवधारणं श्रुतमित्यपीष्यते श्रुत्वावधारणात् श्रुतमित्यस्य दृष्ट्वावधारणात् श्रुतमित्याधुपलक्षणत्वादिति मतं तदा न विरोधः प्रतिपत्तिगौरवं न स्यात् / न चैवमपि मतेः श्रुतस्याभेदः सिद्ध्येत् तल्लक्षणभेदाच्चेत्युपसंहर्तव्यम्॥ तस्मान्मतिः श्रुताद्भिन्ना भिन्नलक्षणयोगतः। अवध्यादिवदर्थादिभेदाच्चेति सुनिश्चितम् // 35 // यथैव ह्यवधिमन:पर्ययकेवलानां परस्परं मतेः स्वलक्षणभेदोर्थभेद: कारणादिभेदश्च सिद्धस्तथा श्रुतस्यापीति युक्तं तस्य मतेर्नानात्वमवध्यादिवत्। ततः सूक्तं मत्यादिज्ञानपंचकम्॥ भावार्थ : देखा जाता है कि स्पर्शन इन्द्रिय से रूखे, चिकने, ठण्डे आदि को जानकर उनसे दूसरे अर्थ, ईंट, मलाई, मखमल आदि अर्थों का अंधेरे में श्रुतज्ञान हो जाता है। रसना इन्द्रिय से मीठापन आदि रस या रसवान् स्कन्धों को चखकर रसों के तारतम्यरूप अन्य पदार्थों का, पहले आम से यह अधिक मीठा आम है और अमुक आम न्यून रस वाला था आदि ज्ञान हो जाता है। इसी प्रकार प्रथम दर्शन, पुनः ईहा मतिज्ञान, पश्चात् मन से ज्ञान होता है। प्रकरण में छहों इन्द्रियों से उत्पन्न हुए मतिज्ञान के पश्चात् अर्थान्तरों का ज्ञान होना रूप श्रुतज्ञान माना गया है।॥३४॥ पुनः रूप, आदि को जानकर रूप, रस, स्पर्श आदि के साथ अविनाभाव रखनेवाले अन्य अर्थों का अवधारण करना भी श्रुतज्ञान इष्ट है। सुन करके अवधारण करने से श्रुतज्ञान होता है यह तो उपलक्षण है। किन्तु देख करके, स्पर्श करके, सूंघ करके, चखकरके और मानस मतिज्ञान करके भी श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार मन्तव्य होने से हम जैनों को कोई विरोध नहीं है। उपलक्षण मानने से प्रतिपत्ति करने में कठिनाई नहीं होती है। अन्यथा एक-एक का नाम लेने से शिष्य को समझाने में अधिक परिश्रम होता है इस प्रकार मतिज्ञान से श्रुतज्ञान का अभेद सिद्ध नहीं हो सकता, उन दोनों के लक्षण पृथक्-पृथक् हैं। इस प्रकार यहाँ चलाये गये प्रकरण का अब संकोच करना चाहिए। __भावार्थ : सुनना आदि इन्द्रियजन्य ज्ञान मतिज्ञान है और इन मतिज्ञानों से पीछे होने वाला अर्थनिर्णय श्रुतज्ञान है। अर्थ से अर्थान्तर के ज्ञान को श्रुतज्ञान कहते हैं। जहाँ कार्यकारण की अभेद विवक्षा है वहाँ धूम से अग्नि का ज्ञान होना अभिनिबोध मतिज्ञान है और भेद विवक्षा होने पर धूम से अग्नि का ज्ञान श्रुतज्ञान है। इस प्रकार लक्षण के भेद से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान में भेद है। - इसलिए भिन्न-भिन्न लक्षणों का सम्बन्ध होने के कारण श्रुतज्ञान से मतिज्ञान भिन्न है जैसे कि अवधि आदि ज्ञान श्रुतज्ञान से भिन्न है अथवा जैसे अवधि आदि से मतिज्ञान भिन्न है वैसे श्रुत से भी भिन्न है तथा विषयरूप अर्थ, कारण आदि के भेदों से भी मतिज्ञान से श्रुतज्ञानों का भेद है, यह बात निश्चित कर दी गई है॥३५॥ . जैसे अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान का परस्पर में तथा मतिज्ञान की अपेक्षा से स्वलक्षण अर्थ भेद है अर्थात् जानने योग्य विषय का भेद है, कारण भेद अर्थात् क्षयोपशम, उत्पत्तिक्रम आदि का भेद सिद्ध है, इसी प्रकार श्रुतज्ञान का भी मतिज्ञान से स्वलक्षण आदि की अपेक्षा भेद है। अत: वह 'श्रुतज्ञान भी अवधि आदि के समान मतिज्ञान से भिन्न है। इसलिए उमास्वामी ने मति आदि पृथक्-पृथक् पाँच ज्ञान कहे हैं, वे युक्तिसंगत हैं।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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