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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 329 स्वरूपमुपहन्यते शक्तिर्वा / न तावदाद्यः पक्षः तत्स्वरूपस्याविकलस्यानुभवात् / द्वितीयपक्षे तु योग्यतासिद्धिस्तद्व्यतिरेकेणाक्षशक्तेरव्यवस्थितेः। क्षयोपशमविशेषलक्षणायाः योग्यताया एव भावेंद्रियाख्यायाः स्वीकरणार्हत्वात्॥ ज्ञानस्य स्पष्टता ऽऽ लोकनिमित्तेत्यपि दूषितम् / एतेन स्थापितात्वीहा क्षायिकं च वशंकरी // 8 // सैवास्पष्टत्वहेतुः स्याद्व्यंजनावग्रहस्य नः। गंधादिद्रव्यपर्यायग्राहिणोप्यक्षजन्मनः॥९॥ यथा स्पष्टज्ञानावरणवीर्यांतरायक्षयोपशमविशेषादस्पष्टता व्यवतिष्ठत इति नान्यो हेतुरव्यभिचारी तत्र संभाव्यते ततोर्थस्यावग्रहादिः स्पष्टो व्यंजनस्यास्पष्टोऽवग्रह एवेति सूक्तम्॥ ___ उन दूरवर्ती वृक्ष के ज्ञान या दिन में तामस पक्षियों के ज्ञानों को उत्पन्न कराने वाली इन्द्रियाँ ही नहीं होती हैं क्योंकि, अधिक दूर देश से और सूर्य के प्रताप से वे इंद्रियाँ नष्ट हो चुकी हैं, जैसे कि चमकते हुए बालू रेत या फूले हुए कांस आदि मृगतृष्णाओं में जल का विकल्प करने वाले ज्ञान की उत्पादक इन्द्रियाँ नष्ट हो जाती हैं। इस पर आचार्य नैयायिकों से पूछते हैं कि - उन अतिशय दूर देश अथवा सूर्य प्रताप के द्वारा क्या इन्द्रियों का स्वरूप ही पूरा नष्ट कर दिया जाता है? अथवा इन्द्रियों की अभ्यन्तर शक्ति नष्ट कर दी जाती है? उनमें पहिला पक्ष तो ग्रहण करना उचित नहीं है. क्योंकि उन इन्द्रियों के अविकल स्वरूप का अनुभव हो रहा है। अर्थात् इन्द्रियों का आकार वैसा का वैसा ही बना हुआ है। दूसरा पक्ष लेने पर तो (प्रकृष्ट दूर देश या सूर्य किरण-प्रताप से चक्षु की शक्ति नष्ट हो जाती है ) योग्यता की सिद्धि हो जाती है। योग्यता से अतिरिक्त इन्द्रियों के शक्ति की व्यवस्था नहीं हो सकती है क्योंकि भावेन्द्रिय नाम से प्रसिद्ध ज्ञानावरण कर्म के विशेष क्षयोपशमस्वरूप योग्यता ही को इन्द्रियशक्तिपना स्वीकार करना योग्य है। . ज्ञान का स्पष्टपना आलोक के निमित्त से होता है, इस प्रकार वैशेषिकों का कहना भी इस उक्त कथन से दूषित कर दिया गया है। जैसे अर्थ के स्पष्ट अवग्रह को स्थापन किया है, उसी प्रकार ईहा ज्ञान, अवाय, धारणा भी प्रतिष्ठित हो जाते हैं। मतिज्ञान और अवधि, मन:पर्ययज्ञानों में अपने क्षयोपशम के अनुसार जैसे स्पष्टपना नियमित है, वैसे ही क्षायिक केवलज्ञान में कर्मों के क्षयरूप योग्यता के कारण स्पष्टपना व्यवस्थित है। स्पष्टज्ञान को कराने वाली योग्यता ही ज्ञान के स्पष्टत्व को वश कर रही है, प्रकट कर रही है।॥८॥ अस्पष्ट ज्ञान को वश करने वाली वह योग्यता ही ज्ञान के अस्पष्टपन का कारण है। गंध, रस, स्पर्श इनसे युक्त पुद्गल द्रव्य अथवा इन गुण या द्रव्यों की सुगन्ध, उष्णता आदि पर्यायों अथवा शब्दस्वरूप पर्यायों को ग्रहण करने वाले तथा चार इन्द्रियों से उत्पन्न व्यंजनावग्रह को हम स्याद्वादियों के यहाँ अस्पष्ट माना गया है।॥९॥ जिस प्रकार ज्ञानावरण के स्पष्ट क्षयोपशम से कतिपय ज्ञानों का स्पष्टपना व्यवस्थित है, उसी प्रकार ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के अस्पष्टक्षयोपशमविशेष से किन्हीं ज्ञानों का अस्पष्टपना व्यवस्थित है। इस प्रकार ज्ञान के स्पष्टपन और अस्पष्टपन की व्यवस्था है। इसके अतिरिक्त अन्य कोई हेतु उनकी व्यवस्था करने में व्यभिचारदोष रहित संभव नहीं है अत: अर्थ (वस्तु) के बहु आदि धर्मों के अवग्रह ईहा आदि कतिपय मतिज्ञान स्पष्ट हैं और अव्यक्त अर्थ का केवल एक अवग्रह ही अस्पष्ट होता है। ऐसा कहना भी युक्त है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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