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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 330 न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् // 19 // किमवग्रहेहादीनां सर्वेषां प्रतिषेधार्थमिदमाहोस्विद्व्यंजनावग्रहस्यैवेति शंकायामिदमाचष्टे;नेत्याद्याह निषेधार्थमनिष्टस्य प्रसंगिनः / चक्षुर्मनोनिमित्तस्य व्यंजनावग्रहस्य तत् // 1 // व्यंजनावग्रहो नैव चक्षुषानिंद्रियेण च / अप्राप्यकारिणा तेन स्पष्टावग्रहहेतुना // 2 // प्राप्यकारींद्रियैश्चार्थे प्राप्तिभेदाद्धि कुत्रचित् / तद्योग्यतां विशेषां वाऽस्पष्टावग्रहकारणम् // 3 // यथा नवशरावादौ द्विव्याद्यास्तोयविंदवः। अव्यक्तामार्द्रतां क्षिप्ताः कुर्वति प्राप्यकारिणः // 4 // उक्त सूत्रानुसार सम्पूर्ण इन्द्रियों के द्वारा सामान्यरूप करके व्यंजनावग्रह हो जाने का प्रसंग प्राप्त होने पर जिन इन्द्रियों से व्यंजनावग्रह होने की सर्वथा असम्भवता है, उन दो इन्द्रियों द्वारा व्यंजनावग्रह का निषेध करने के लिए आचार्य सूत्र कहते हैं- चक्षु इन्द्रिय और अनिन्द्रिय के द्वारा व्यंजनावग्रह नहीं होता है, शेष चार इन्द्रियों से ही होता है, चक्षु और मन के द्वारा व्यक्त अर्थ का ही ज्ञान होता है, अव्यक्त का नहीं // 19 // अव्यक्त अर्थ के अवग्रह, ईहा आदिक सभी ज्ञानों का निषेध करने के लिए यह सूत्र कहा है? अथवा अव्यक्त अर्थ के व्यंजनावग्रह के ही निषेधार्थ यह सूत्र कहा है-ऐसी शंका होने पर आचार्य कहते हैं कि - पूर्व में कहे गये "व्यंजनस्यावग्रहः" इस सूत्रानुसार चक्षु और मन के निमित्त से भी व्यंजनावग्रह हो जाने का प्रसंग आता है, जो कि इष्ट नहीं है अतः प्रसंग प्राप्त उस अनिष्ट चक्षु और मन के निमित्त से होने वाले व्यंजनावग्रह का निषेध करने के लिए “न चक्षुरनिन्द्रियाभ्यां" यह सूत्र कहा गया है। अतः स्पष्ट अवग्रह का हेतु ज्ञेयविषयों को प्राप्त नहीं कर ज्ञान कराने वाले चक्षु और मन के द्वारा व्यंजनावग्रह नहीं होता है। अर्थात् स्पष्ट अवग्रह के कारण उन चक्षु और मन के द्वारा अव्यक्त अर्थ का अवग्रह नहीं होता है। अत: अव्यक्त अर्थ के ईहा आदि ज्ञान चक्षु और मन तथा अन्य स्पर्शन आदि इन्द्रियों से नहीं होते हैं। पूर्व सूत्र में अव्यक्त अर्थ का व्यंजन अवग्रह होना ही बताया गया है अतः अव्यक्त विषय में छहों इन्द्रियों करके ईहा, अवाय आदि मतिज्ञानों का निषेध हो जाता है। तथा व्यक्त अर्थ में ही स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, अनुमान आदि ज्ञान उत्पन्न होते हैं॥१-२॥ विषय को प्राप्त होकर ज्ञान कराने वाली इन्द्रियों के द्वारा अर्थ में प्राप्ति हो जाने के भेद से कहींकहीं अस्पष्ट अवग्रह के कारण उस योग्यता विशेष को प्राप्त कर व्यंजनावग्रह होता है। अर्थात् स्पष्ट अर्थ का स्पर्शना या स्पर्श करके ही श्रोत्र, त्वक्, रसना, घ्राण इन्द्रियों के द्वारा अस्पष्ट अवग्रह की योग्यता प्राप्त होने पर व्यंजनावग्रह मतिज्ञान होता है॥३॥ _ जिस प्रकार मिट्टी के नये सिकोरा आदि बर्तनों में पानी की दो, तीन, चार आदि बूंदें प्राप्यकारी होकर अव्यक्त गीलेपन को करती हैं, परन्तु लगातार जलबिन्दुओं के डालते रहने पर वे ही जलबिन्दुएँ उस
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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