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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 328 दोषः / यथैव हि दूरादस्पष्टस्वभावत्वमर्थस्य सन्निकृष्टस्पष्टताप्रतिभासेन बाध्यते तथा सन्निहितार्थस्य स्पष्टत्वमपि दूरादस्पष्टता प्रतिभासेन निराक्रि यत इति नार्थः स्वयं कस्यचित्स्पष्टोऽस्पष्टो वा स्वविषयज्ञानस्पष्टत्वास्पष्टत्वाभ्यामेव तस्य तथा व्यवस्थापनात्। नन्वेवं ज्ञानस्य कुतः स्पष्टता? स्वज्ञानत्वादिति चेन्न, अनवस्थानुषंगात् / स्वत एवेति चेत् सर्वज्ञानानां स्पष्टत्वापत्तिरित्यत्र कश्चिदाचष्टे। अक्षात्स्पष्टता ज्ञानस्येति तदयुक्तं, दविष्ठपादपादिज्ञानस्य दिवा तामसखगकुलविज्ञानस्य च स्पष्टत्वप्रसंगात्। तदुत्पादकमक्षमेव न भवति दरतमदिवसकरप्रतापाभ्याम्पहतत्वात् मरीचिकासु तोयाकारज्ञानोत्पादकाक्षवदिति चेत् तर्हि ताभ्यामक्षस्य उत्तर : इसके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि स्पष्टपना यदि ज्ञान का धर्म है, तब अर्थ का स्पष्टपना कैसे कहा जा सकेगा? तुम्हारे ऊपर भी अतिप्रसंग दोष की समानता है। अर्थात्-ज्ञान के स्पष्टपने से यदि अर्थ का स्पष्टपना होने लगे तो नीम के कटुपने से देशान्तरवर्ती खांड में भी कटुता आ जाएगी। प्रश्न : ज्ञान और ज्ञेय का घनिष्टरूप से विषयविषयी भाव सम्बन्ध हो जाने के कारण विषय-ज्ञेय में विषयी-ज्ञान के स्पष्टपने का उपचार कर लिया जाता है। अतः कोई दोष नहीं है। उत्तर : इस प्रकार कहने पर तो हम स्याद्वादवादी भी कह सकते हैं कि अस्पष्टपने के दूसरे स्थल पर भी विषयी के धर्म का विषय में आरोप कर देने से कोई दोष नहीं आता है। अर्थात् पदार्थ के स्पष्ट न होने पर ज्ञान को अस्पष्ट कह दिया जाता है। जिस प्रकार दूर से जाने गये अर्थ का अस्पष्ट स्वभावपना वहाँ जाते-जाते ज्ञाता को अर्थ के अतिनिकटवर्ती हो जाने पर स्पष्ट प्रतिभास के द्वारा बाधित हो जाता है? उसी प्रकार सन्निकटवर्ती अर्थ का ज्ञान द्वारा आया हुआ स्पष्टपना भी हटकर दूर से देखने पर अर्थ के अस्पष्टपना प्रतिभास द्वारा निराकृत हो जाता है अतः सिद्ध हो जाता है कि किसी भी जीव के द्वारा जाना गया अर्थ स्वयं स्पष्ट अथवा अस्पष्ट नहीं है किन्तु अपने को विषय करने वाले ज्ञान के स्पष्टपन और अस्पष्टपन के द्वारा ही उस अर्थ की स्पष्टता और अस्पष्टता व्यवस्थित है। अर्थात् स्पष्ट, अस्पष्टपना तो स्वकीय ज्ञानावरण के क्षयोपशम के कारण से वस्तुत: विद्यमान है। अर्थात् ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के अनुसार स्पष्टता और अस्पष्टता ज्ञान में ही रहती है, पदार्थ में नहीं। शंका : इस प्रकार ज्ञान के भी स्पष्टता कैसे प्राप्त होती है? उस ज्ञान के स्वस्वरूप को जानने वाले अन्य ज्ञान से प्रकृत ज्ञान में स्पष्टता कहना तो उचित नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर अनवस्था दोष का प्रसंग आता है अर्थात् दूसरे ज्ञान का स्पष्टपना उसको जानने वाले तीसरे ज्ञान से और तीसरे ज्ञान का स्पष्टपना उसको जानने वाले चौथे ज्ञान से मानना पड़ेगा। यदि ज्ञान को स्पष्टपना स्वत: ही प्राप्त हो जाता है, तब तो सभी व्यंजनावग्रह, स्मरण, अनध्यवसाय आदि ज्ञानों को स्पष्टता को प्राप्त हो जायेगा। इस प्रकार किसी के कहने पर उसका उत्तर देने के लिए बीच में ही अनधिकारी कहता है कि ज्ञान की स्पष्टता तो इन्द्रियों से आ जाती है अर्थात् जो ज्ञान इन्द्रियों से जन्य है, वे स्पष्ट हैं। ग्रन्थकार कहते हैं कि यह उन नैयायिकों का कहना युक्ति रहित है, क्योंकि यदि इन्द्रियों से ही ज्ञान में स्पष्टपना आने लगे तो अधिक दूरवर्ती वृक्ष आदि के ज्ञान को तथा दिन में उल्लूक आदि पक्षियों के समुदाय को होने वाले ज्ञान को भी स्पष्टपने का प्रसंग आएगा।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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