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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 327 तत्स्पष्टप्रतिभासानंतरं तदस्पष्टावभासनप्रसंगात्। नापि परंपरया लिंगादिश्रुतज्ञानपूर्वकत्वेन तस्याननुभवात्। न चात्र यादृशमक्षानपेक्षं पादपादि साक्षात्करणपूर्वकं प्ररूपणमस्पष्टं तादृशमनुभूयते येन श्रुतज्ञानं तदनुमन्येमहि। श्रुतस्य स्मृत्याद्यपेक्षया स्पष्टत्वात्। संस्थानादिसामान्यस्य प्रतिभासनात्। सन्निकृष्टपादपादिप्रतिभासनापेक्षया तु दविष्ठपादपादिप्रतिभासनमस्पष्टमक्षजमपीति युक्तोऽनेन व्यभिचारः प्रकृतहेतोः। अपरः प्राह। स्पष्टमेव सर्वविज्ञानं स्वविषयेन्यस्य तद्व्यवस्थापकत्वायोगादक्षप्रतिभासनवत्। ततो नास्पष्टो व्यंजनावग्रह इति नैव मन्येत स्पष्टास्पष्टावभासयोरबाधितवपुषोः स्वयं सर्वस्यानुभवात्। ननु चास्पष्टत्वं यदि ज्ञानधर्मस्तदा कथमर्थस्यास्पष्टत्वमन्यस्यास्पष्टत्वादक्षन्यस्यास्पष्टत्वेतिप्रसंगादितिचेत् तर्हि स्पष्टत्वमपि यदि ज्ञानस्य धर्मस्तदा कथमर्थस्य स्पष्टतातिप्रसंगस्य समानत्वात्। विषये विषयिधर्मस्योपचाराददोष इति चेत् तत एवान्यत्रापि न तथा इसमें जैसे साक्षात् इन्द्रिय व्यापारपूर्वक स्पष्ट प्ररूपण है वैसा वृक्षादि इन्द्रिय अनपेक्ष अनुभव में नहीं आ रहे हैं। अर्थात् जैसे वृक्ष को साक्षात् जानकर पीछे यह आम्र वृक्ष है, इस पर रात्रि में पक्षी रहते हैं इत्यादि प्रकार के अविशद विचार जैसे इन्द्रियों की अपेक्षा से नहीं होते हैं, उसी प्रकार का विचार एकदम दूर से वृक्ष को देखने पर अनुभव में नहीं आ रहा है जिससे कि हम उसको श्रुतज्ञान मान लें। श्रुतज्ञान या स्मरणज्ञान आदि परोक्ष ज्ञानों की अपेक्षा से तो वह दूरवर्ती वृक्ष का ज्ञान स्पष्ट है क्योंकि, सामान्यरूप से सन्निवेश, ऊँचाई आदि का तो विशद प्रतिभास हो रहा है, परन्तु श्रुतज्ञान में संकेतस्मरण आदि मध्यवर्ती अपेक्षणीय प्रतीतियों का व्यवधान पड़ जाने से विशद प्रतिभास नहीं हो पाता है। अधिक निकटवर्ती वृक्ष आदि के प्रतिभास की अपेक्षा से तो अतिशय दूरवर्ती वृक्ष आदि के प्रतिभास को अस्पष्टपना है। वह ज्ञान इन्द्रियों से जन्य भी है। इस कारण प्रकरण प्राप्त इन्द्रियजन्य हेतु का इस दूरवर्ती वृक्ष के अस्पष्ट ज्ञान से व्यभिचार दोष उठाना युक्त ही है। कोई दूसरा प्रतिवादी कहता है कि सम्पूर्ण विज्ञान स्पष्ट ही होते हैं क्योंकि अपने-अपने विषय को जानने में अन्य किसी को भी उन ज्ञानों की व्यवस्था करा देने का योग नहीं है। जैसे कि इन्द्रियजन्य ज्ञानों को स्वयं अपने विषय का व्यवस्थापकपना होने से स्पष्टपना नियत है अतः व्यंजनावग्रह मतिज्ञान भी अविशद नहीं है, स्पष्ट ही है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा नहीं कहना चाहिए, क्योंकि बाधा को प्राप्त नहीं है शरीर (स्वरूप) जिसका, ऐसे स्पष्ट और अस्पष्ट प्रतिभासों का सम्पूर्ण प्राणियों को स्वयं अनुभव हो रहा है। अर्थात् ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम के अनुसार व्यंजनावग्रह, स्मरण, अनुमान, आगम आदि ज्ञानों को अन्य प्रतीतियों का व्यवधान पड़ जाने के कारण अविशदपना और ज्ञानावरण कर्म के विशिष्ट क्षयोपशम और क्षय के कारण स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष, इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष, सर्वज्ञप्रत्यक्ष, इन ज्ञानों का स्पष्टपना स्वयं अनुभूत हो रहा है। ___ प्रश्न : व्यंजनावग्रह, स्मरण आदि ज्ञानों के अवसर पर माना गया अस्पष्टपना यदि ज्ञान का धर्म माना जाएगा, तब तो अर्थ का अस्पष्टपना कैसे कहा जा सकता है? (अर्थात्-चेतनज्ञान का अस्पष्टपना जड़ अर्थ में तो नहीं रखा जा सकता है) यदि अन्य वस्तु के अस्पष्टत्व से दूसरे पदार्थ का अस्पष्टपना माना जाएगा तो अतिप्रसंग दोष आयेगा।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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