SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 331
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 326 श्रुतज्ञानं वा न भवति साक्षात्परंपरया वा मतिपूर्वकत्वाभावात् तद्वदेवेति युक्तिविरुद्धमागमविरुद्धं च तस्य श्रुतज्ञानत्वं यतो धीमद्भिरनुभूयते / न चास्पष्टतर्कणं श्रुतस्य लक्षणं स्मृत्यादेरपि श्रुतत्वप्रसंगात् / मतिगृहीतेर्थेनिंद्रियबलादस्पष्टं स्वसंवेदनप्रत्यक्षादन्यत्वात्तर्कणं नानास्वरूपप्ररूपणं श्रुतमिति तस्य व्याख्याने 'श्रुतं मतिपूर्व' इत्येतदेव लक्षणं तथोक्तं स्यात् तच्च न प्रकृतज्ञानेस्ति। न हि साक्षाच्चक्षुर्मतिपूर्वक साथ अन्वय, व्यतिरेक का अनुविधान करनेवाला होने से। अर्थात्-इन्द्रियों के होने पर वह ज्ञान होता है, इन्द्रियों के नहीं होने पर दूर से वृक्ष का ज्ञान या दिन में उल्लू को ज्ञान नहीं होता है। जैसे कि निकट देश के वृक्ष आदि का विशेष ज्ञान इन्द्रियों के साथ अन्वय, व्यतिरेक को अनुविधान करने वाला होने से इन्द्रियजन्य है। वस्तुत: उक्त ज्ञान प्रत्यक्ष नहीं है, क्योंकि “आद्ये परोक्षम्" इस सूत्र द्वारा इन्द्रिय, अनिन्द्रियजन्य मतिज्ञान को परोक्ष माना है। किन्तु वैशेषिकों के यहाँ इन्द्रियजन्यज्ञान प्रत्यक्ष माना गया है। ये उक्त ज्ञान श्रुतज्ञान तो कैसे भी नहीं हो सकते क्योंकि इन ज्ञानों में अव्यवहित साक्षात् अथवा व्यवहित परम्परा रूप से मतिपूर्वकत्व का अभाव नहीं है। (अतिनिकटवर्ती वृक्ष के ज्ञान समान) अर्थात्-कोई आदि के श्रुतज्ञान तो साक्षात् मतिज्ञान को पूर्व मानकर उत्पन्न होते हैं और कोई श्रुतज्ञानजन्य दूसरे श्रुतज्ञान परम्परा द्वारा मतिपूर्वक होते हैं किन्तु इन दूरवर्ती वृक्ष आदि के ज्ञानों के पूर्व में मतिज्ञान का अभाव कथमपि नहीं है अत: उक्त ज्ञान श्रुतज्ञान नहीं हो सकते हैं। व्यंजन अवग्रह आदि ज्ञानों को श्रुतज्ञान कहना युक्तियों से तथा आगमप्रमाण से विरुद्ध है, क्योंकि प्रतिभाशाली विद्वानों के द्वारा आगम प्रमाण उक्त ज्ञानों में श्रुतज्ञान से भिन्नता का अनुभव किया जा रहा है। तथा अविशदरूप से विकल्पनाएँ करना श्रुतज्ञान का लक्षण नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर स्मृति, तर्कज्ञान आदि को भी श्रुतज्ञानपने का प्रसंग आता है। ये ज्ञान भी अपने विषयों की अविशद विकल्पनाएँ करते हैं। यदि “अस्पष्टतर्कणं श्रुतं' इस लक्षण वाक्य का मतिज्ञान द्वारा गृहीत अर्थ में मन इन्द्रिय की सामर्थ्य से जो अविशदप्रकाशी (स्वसम्वेदनप्रत्यक्ष) से भिन्नपना होने के कारण तर्कण, नाना स्वरूपों का निरूपक श्रुतज्ञान है। ऐसा परिभाषण करने पर तो “श्रुतं मतिपूर्व' यह लक्षण ही व्याख्यान करने के समय कह दिया गया है किन्तु वह श्रुतज्ञानपना तो प्रकरण प्राप्त दूरवर्ती ज्ञान या उल्लूक ज्ञानों में नहीं है क्योंकि वह दर वक्ष आदि का ज्ञान साक्षात रूप से चक्ष इन्द्रियजन्य मतिज्ञान को कारण मानकर उत्पन्न नहीं होता है। यदि ऐसा होता तो उस स्पष्ट प्रतिभास के अव्यवहित काल पीछे उस दूरवर्ती वृक्ष आदि का अविशद प्रतिभास होने का प्रसंग आता। यह ज्ञान परम्परा से भी मतिज्ञानपूर्वक नहीं है, जैसे कि परार्थानुमान में कर्ण इन्द्रिय द्वारा आप्त के शब्द को सुनकर हेतु का ज्ञान स्वरूप पहिला श्रुतज्ञान कहा जाता है। पीछे उस श्रुतज्ञान से साध्यज्ञानरूप दूसरा श्रुतज्ञान हो जाता है। इस दूसरे श्रुतज्ञान में परम्परा से मतिज्ञान पूर्ववर्ती रहता है। किन्तु यहाँ दूर वृक्ष आदि के ज्ञान में परम्परा से मतिज्ञान कारण नहीं है। अत: लिङ्ग, वाच्य आदि के श्रुतज्ञान के पूर्वक से उस दूरवृक्ष आदि ज्ञान का अनुभव नहीं होता है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy