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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 325 नन्वर्थावग्रहो यद्वदक्षतः स्पष्टगोचरः। तद्वत् किं नाभिमन्येत व्यंजनावग्रहोप्यसौ॥४॥ क्षयोपशमभेदस्य तादृशोऽसंभवादिह। अस्पष्टात्मकसामान्यविषयत्वव्यवस्थितम् // 5 // अध्यक्षत्वं न हि व्याप्तं स्पष्टत्वेन विशेषतः। दविष्ठपादपाध्यक्षज्ञानस्यास्पष्टतेक्षणात् // 6 // विशेषविषयत्वं च दिवा तामसपक्षिणां। तिग्मरोचिर्मयूखेषु भृगपादावभासनात् // 7 // ननु च दूरतमदेशवर्तिनि पादपादौ ज्ञानमस्पष्टमस्मदादेरस्ति विशेषाविषयं चादित्यकिरणेषु ध्यामलाकारमधुकरचरणवदवभासनमुलूकादीनां प्रसिद्धं / न तु तदक्षजं श्रुतमस्पष्टत्वाच्छुतमस्पष्टतर्कणमिति वचनात् / ततो न तेन व्यभिचारोक्षजत्वस्य हेतोः स्पष्टत्वे साध्ये व्यंजनावग्रहे धर्मिणीति कश्चित्। तन्न युक्त्यागमाविरुद्धं दविष्ठपादपादिज्ञानमक्षजमक्षान्वयव्यतिरेकानुविधायित्वात् सन्निकृष्टपादपादिविज्ञानवत् / समाधान : यहाँ अव्यक्त अर्थ का व्यंजनावग्रह करते समय उस प्रकार के स्पष्ट जानने वाले विशेष क्षयोपशम की असम्भवता है अत: व्यंजनावग्रह का अस्पष्ट स्वरूप सामान्य पदार्थ को ही विषय करना व्यवस्थित किया गया है। अर्थात् अर्थावग्रह या व्यंजनावग्रह करते समय सामान्यविशेषात्मक अर्थ एकसा है, फिर भी क्षयोपशम के अधीन ज्ञानों की प्रवृत्ति होने के कारण व्यंजनावग्रह द्वारा अव्यक्त शब्दादि के समुदाय का ही ज्ञान होता है, ईहा आदि का नहीं // 4-5 // प्रत्यक्ष की स्पष्टता के साथ विशेषरूप से व्याप्ति नहीं है क्योंकि अधिक दूरवर्ती वृक्ष के प्रत्यक्ष ज्ञान का अस्पष्टपना देखा जाता है तथा विशेषों का विषय करना भी प्रत्यक्ष के साथ व्याप्त नहीं है। अंधकार में देखने वाले उल्लू, चिमगादड़ आदि पक्षियों को दिन में सूर्य की किरणों में भ्रमर के पैरों का प्रतिभास होता है। अर्थात् - प्रत्यक्षज्ञान होकर भी कोई-कोई ज्ञान अस्पष्टरूप से सामान्य का विषय करते हैं। स्पष्ट रूप से सभी विशेष अंशों को जान लेना प्रत्यक्षज्ञान के लिए आवश्यक नहीं है // 6-7 // .. शंका : बहुत अधिक दूर देश में स्थित वृक्ष आदि पदार्थों में हमारे जैसे अल्पज्ञानियों को अस्पष्टज्ञान होता है तथा अंधेरे में देखने वाले उल्लू आदि तामस पक्षियों को दिन के समय सूर्य की किरणों में उत्पन्न हुआ थोड़ा, काला-काला, भ्रमर के चरण समान दीख जाना विशेष अंश को विषय नहीं करने वाला प्रसिद्ध है। परन्तु विशेष का विषय नहीं करने वाला वह ज्ञान इन्द्रियों से जन्य नहीं है, प्रत्युत् अविशद होने के कारण श्रुतज्ञान है। अविशद विकल्प रूप तर्कणाएँ करने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान होता है। इस प्रकार आर्ष ग्रन्थों में कहा गया है। अत: व्यंजनावग्रह पक्ष में स्पष्टत्व को साध्य करने पर इन्द्रियजन्यत्वपन हेतु का उस दूरवर्ती वृक्ष के ज्ञान या दिन में उल्लूक आदि का ज्ञान करके व्यभिचार दोष युक्त नहीं होता है। इसलिए अर्थावग्रह के समान व्यंजनावग्रह को भी स्पष्ट ज्ञान मानना चाहिए। ऐसा कहने वाले के प्रति आचार्य कहते हैं - उपर्युक्त किसी का कहना युक्ति और आगम से अविरुद्ध नहीं है अर्थात्-यह कथन आगम और युक्ति के विरुद्ध है। .. दूरवर्ती वृक्ष के देखने को और दिन में उल्लू आदि के देखने को प्रत्यक्ष नहीं मानना, यह मत अनुमान और आगम से विरुद्ध है, क्योंकि अधिक दूरवर्ती वृक्ष आदि का ज्ञान इन्द्रियजन्य है, इन्द्रियों के
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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