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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक *322 विरोधोभयदोषसंकरव्यतिकराः प्रतिपत्तव्याः स्युः। किं तर्हि / कथंचिदन्यत्वमनन्यत्वं च यथाप्रतीतिजात्यंतरमविरुद्धं चित्रविज्ञानवत्सामान्यविशेषवद्वा सत्त्वाद्यात्मकैकप्रधानवद्वा चित्रपटवद्वेत्युक्तप्रायं। तत एव न सिद्धानामसिद्धानां वा बह्वादीनां धर्मिणि न पारतंत्र्यानुपपत्तिः कथंचित्तादात्म्यस्य ततः पारतंत्र्यस्य व्यवस्थितेः। ने धर्म-धर्मी का सर्वथा अभेद नहीं मानकर कथंचित् अभेद माना है। स्याद्वाद सिद्धान्त में धर्म और धर्मी में जिस रूप से भेद माना है उसी रूप से अभेद नहीं माना गया है जिससे कि विरोध दोष, उभयदोष, संकर, व्यतिकरदोष, अप्रतिपत्तिदोष आते हैं। अर्थात् - जिस स्वरूप से भेद माना जाता है उसी स्वरूप से अभेद मानने पर विरोध आता है। भावार्थ : जब एक ही वस्तु में कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद मानते हैं तो उन दोनों के अपेक्षणीय धर्मों का संमिश्रण हो जाने से उभयदोष, भेद-अभेद के भिन्न-भिन्न अवच्छेदकों की युगपत् प्राप्ति, . हो जाने से संकर दोष, परस्पर विषयों में गमन हो जाना रूप व्यतिकर दोष, भेद-अभेद अंशों में पुनः एकएक में भेद-अभेद की कल्पना करते रहना अनवस्था दोष, वस्तु में भेद-अभेद के नियामक दोनों धर्म रहते हैं तो किस धर्म से भेद माना जाए। और किससे अभेद? इस प्रकार संशय दोष, ऐसी अव्यवस्थित दशा में वस्तु की निर्णीत प्रतिपत्ति नहीं हो सकेगी। यह अप्रतिपत्तिदोष, अनिर्णीत वस्तु का या दो विरुद्ध धर्मों के कारण वस्तु का अभाव ही कहना पड़ता है अतः अभाव दोष इन आठ दोषों की भेदाभेद उभय आत्मक रूप से प्रतीत वस्तु में संभावना नहीं है, क्योंकि प्रमाण से जान लिए गए पदार्थ में कोई दोष नहीं आते हैं। यदि जैन विद्वान धर्म और धर्मी का भेद भी नहीं मानते हैं, अभेद भी नहीं मानते हैं तथा उस एक ही रूप से भेद-अभेद दोनों को नहीं मानते हैं, तो धर्म धर्मी को कैसे क्या मानते हैं? इस प्रकार तीव्र जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं कि-प्रतीति का अतिक्रमण नहीं कर धर्म और धर्मी का कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद माना गया है। भेद और अभेद की जातियों से यह कथंचित् भेद-अभेद तीसरी, जाति का होकर अविरुद्ध है, जैसे बौद्धों के अनेक आकारों से मिला हुआ एक चित्र विज्ञान है अर्थात् जैसे चित्रज्ञान एक आकार तथा नील, पीत आदि अनेक आकार से रहित पृथक् जाति का है, अथवा वैशेषिकों के द्वारा स्वीकृत सामान्यस्वरूप व्यापक जातियों की विशेषरूप व्याप्य जाति के समान है। पुद्गल में पटत्व की अपेक्षा विशेषपना भी है और सत्ता, द्रव्यत्व की अपेक्षा सामान्यपना भी है। तथा कापिलों ने सत्त्वगुण, रजोगुण, तमोगुण इन तीन की तदात्मक अवस्था रूप एक प्रकृति को माना है। त्रिगुण आत्मक वह प्रधान उन पृथक्-पृथक् तीन के त्रित्व या आकाश के एकत्व से भिन्न जाति को लिये हुए है अथवा नैयायिकों के यहाँ माना गया चित्रपट तत्त्व तो अनेक भिन्न-भिन्न रूपों से या शुद्ध एक रूप से युक्त पदार्थों की अपेक्षा पृथक् तीसरी जातिवाला पदार्थ है। इस प्रकार कितने ही एकान्तवादियों के द्वारा माने गये दृष्टान्तों से वस्तु का भेद अभेद आत्मक जात्यन्तरपना साध लेना चाहिए। इस बात को हम पहिले कितने ही स्थलों पर प्रायः कह चुके हैं।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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