________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 320 अर्थस्याबाधितप्रतीतिसिद्धस्य धर्मिणो बह्वादीनां सेतराणां तत्परतंत्रतया प्रतीयमानानां धर्माणामवग्रहादयः परिच्छित्तिविशेषास्तदेकं मतिज्ञानमिति सूत्रत्रयेणैकं वाक्यं चतुर्थसूत्रापेक्षेण वा प्रतिपत्तव्यं // ____ कः पुनरर्थो नामेत्याह;यो व्यक्तो द्रव्यपर्यायात्मार्थः सोत्राभिसंहितः। अव्यक्तस्योत्तरे सूत्रे व्यंजनस्योपवर्णनात् // 2 // केवलो नार्थपर्यायः सूरेरिष्टो विरोधतः। तस्य बह्वादिपर्यायविशिष्टत्वेन संविदः॥३॥ तत एव न निःशेषपर्यायेभ्यः पराङ्मुखम् / द्रव्यमर्थो न चान्योन्यानपेक्ष्य तवयं भवेत् // 4 // एवमर्थस्य धर्माणां बह्वादीतरभेदिनाम् / अवग्रहादयः सिद्धं तन्मतिज्ञानमीरितम् // 5 // है। अत: वह सब एक मतिज्ञान है। इस प्रकार तीन सूत्रों के एकावयवीरूप से एक वाक्य बनाकर एक .मतिज्ञान का विधान किया गया समझना चाहिए। अर्थात् अवग्र हेहावायधारणा:१ बहुबहुविधक्षिप्रानिसृतानुक्तध्रुवाणां सेतराणां 2 अर्थस्य 3 इन तीनों सूत्रों का एकीभाव कर धर्मी पदार्थ के बहु आदि धर्मों का अवग्रहज्ञान होता है। ईहा आदिकज्ञान भी होते हैं। अथवा चौथा सूत्र "तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं' मिलाकर इस प्रकार शब्दबोध करना कि अर्थ के बहु आदिक धर्मों का इन्द्रिय अनिन्द्रियों करके अवग्रहज्ञान होता है। ईहा आदिज्ञान भी होते हैं। अथवा चौथे सूत्र “मतिःस्मृति: संज्ञाचिन्ताभिनिबोध इत्यनान्तरम्' की अपेक्षा रखते हुए उक्त तीन सूत्रों द्वारा एक वाक्य बनाकर यह अर्थ कर लेना चाहिए कि अर्थ के धर्म बहु आदि के अवग्रह आदि ज्ञान होते हुए स्मृति, प्रत्यभिज्ञान आदि ज्ञान भी हो जाते हैं। तथा तीन सूत्रों के साथ भविष्य के “व्यंजनस्यावग्रहः” इस चौथे सूत्र का योग कर देने पर यह अर्थ समझ लेना चाहिए कि धर्मी व्यक्त अर्थ और अव्यक्त अर्थ के बहु आदि धर्मों का अवग्रह हो जाता है। व्यक्त अर्थ के धर्मों के ईहा आदि या स्मरण आदि मतिज्ञान भी हो जाते हैं। यह सूत्र में कहा गया अर्थ क्या पदार्थ है? इस प्रकार शिष्य की जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं-द्रव्य और पर्यायों से तदात्मक धर्मी वस्तुभूत व्यक्त पदार्थ है, वही इस प्रकरण में अर्थ शब्द से अभिप्रेत है क्योंकि अग्रिम भविष्य सूत्र में अव्यक्त व्यंजन का वर्णन किया जाएगा // 2 // विरोध होने से धर्मी अर्थ से रहित केवल अर्थ की पर्यायें स्वरूप ही अर्थ श्री उमास्वामी आचार्य को इष्ट नहीं है। ___अर्थात् : धर्मी के बिना केवल पर्यायस्वरूप धर्मों का रहना विरुद्ध है। क्योंकि बहु, बहुविध आदि पर्यायों से विशिष्ट रूप से उस अर्थ का सम्वेदन प्रसिद्ध है अतः सम्पूर्ण पर्यायों से पराङ्मुख द्रव्य भी अर्थ नहीं मानना चाहिए। तथा परस्पर एक दूसरे की अपेक्षा नहीं रखते हुए केवल द्रव्य या अकेले पर्याय ये दोनों भी स्वतंत्ररूप से अर्थ नहीं हैं अर्थात् - परमार्थ रूप से स्वकीय द्रव्य और पर्यायों के साथ तदात्मक वस्तु ही अर्थ है॥३-४॥ इस प्रकार व्यवस्थित अर्थ के बहु, अल्प आदिक बारह भेद वाले धर्मों के अवग्रह आदि ज्ञान होते