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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 319 अर्थस्य // 17 // किमर्थमिदं सूत्र्यते सामर्थ्यसिद्धत्वादिति चेदत्रोच्यते;ननु बह्वादयो धर्माः सेतराः कस्य धर्मिणः / तेऽवग्रहादयो येषामित्यर्थस्येति सूत्रितम् // 1 // न कश्चिद्धर्मो विद्यते बह्वादिभ्योन्योऽनन्यो वानेकदोषानुषंगात्तदभावे न तेपि धर्माणां धर्मपरतंत्रलक्षणत्वात्स्वतंत्राणामसंभवात्। ततः केषामवग्रहादयः क्रियाविशेषा इत्याक्षिपंतं प्रतीदमुच्यते। सकेंगे। अत: उन दोनों ध्रुव, अध्रुव स्वरूपों को सुलभता से प्रत्येक वस्तु में निर्दोष स्वीकार कर लेना चाहिए। इस प्रकार बहु आदिक बारह भेदों के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाज्ञान हो जाते हैं। बहु, बहुविध आदि धर्मों के आधारभूत धर्मों को समझाने के लिए श्री उमास्वामी आचार्य अग्रिमसूत्र का प्रतिपादन करते हैं-चक्षु आदि इन्द्रियों के विषयभूत पदार्थ को अर्थ कहते हैं। उस बहु आदि विशेषणों से विशिष्ट अर्थ के अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणाज्ञान होते हैं; स्मरण, प्रत्यभिज्ञान आदि ज्ञान भी अर्थ के ही होते हैं॥१७॥ ___यह सूत्र किस प्रयोजन के लिए बनाया गया है? क्योंकि बहु आदिक धर्मों के कथन कर देने की सामर्थ्य से ही धर्म वाला अर्थ तो स्वतः प्रतीत सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार शंका के उत्तर में श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं - - अल्प, अल्पविध आदि इतरों से सहित बहु, बहुविध आदि धर्म किस धर्मी के हैं? जिन बहु आदिकों के वे अवग्रह आदि चार ज्ञान हो सकें। इस प्रकार जिज्ञासा होने पर “अर्थस्य" ऐसा सूत्र आचार्यप्रवर श्री उमास्वामी महाराज द्वारा कहा गया है॥१॥ भावार्थ : जो कोई धर्मी को न मान कर अकेले धर्मों को ही ज्ञान विषय का स्वीकार करते हैं, जैसे कि रूप, रस तो हैं किन्तु पुद्गलद्रव्य कोई धर्मी नहीं है, ज्ञान सुख तो है, आत्मा नहीं है। उन वादियों के निराकरणार्थ 'अर्थस्य' यह सूत्र कहा गया है। - बहु, बहुविध आदि धर्मों से सर्वथा भिन्न अथवा अभिन्न कोई धर्मी पदार्थ विद्यमान नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अनेक दोषों के आने का प्रसंग आता है। अर्थात् धर्मी से धर्म का सर्वथा भेद मानने पर “इस धर्मी के ये धर्म हैं।" ऐसा नियत व्यपदेश नहीं हो सकेगा। जल का उष्णता और अग्नि का धर्म शीतपना बन जायेगा। तथा धर्मी का धर्मों से अभेद मानने पर धर्मों के समान धर्मी भी अनेक हो जायेंगे। तथा उस धर्मी का अभाव हो जाने पर उसके आश्रित रहने वाले वे धर्म भी सिद्ध नहीं होते हैं। क्योंकि धर्मी के पराधीन होकर रहना धर्मों का लक्षण है। सभी धर्म धर्मी के आधीन रहते हैं। स्वतंत्र रहने वाले धर्मों की असम्भवता है। अतः अवग्रह, ईहा, आदि ज्ञप्तिकिया के विशेष किन विषयों के होते हैं? इस प्रकार आक्षेप करने वाले बौद्धों के प्रति यह सूत्र कहा गया है। बाधारहित प्रतीतियों से सिद्ध धर्मी स्वरूप अर्थ के और धर्मी के आधीनता से प्रतीति में आने वाले अन्य आदि इतरों से सहित वे बहु आदिक धर्मों की अवग्रह आदि विशेषों से परिच्छित्तियाँ ज्ञान हो जाता
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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