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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 318 यदि कश्चिद्धृव एवार्थः कश्चिदध्रुवः स्यात्तदा स्याद्वादिनस्तत्रावग्रहावबोधमाचक्षाणस्य स्वसिद्धांतबाध: स्यान्न पुनरेकमर्थं कथंचिद्धृवमध्रुवं चावधारयतस्तस्य सिद्धांते सुप्रसिद्धत्वात्स तथा विरोधी बाधक इति चेत् न, तस्यापि सुप्रतीते विषयेऽनवकाशात्। प्रतीतं च सर्वस्य वस्तुनो नित्यानित्यात्मकत्वात्। प्रत्यक्षतोनुमानाच्च तस्यावबोधादन्यथा जातुचिदप्रतीते: परमार्थतो नोभयरूपतार्थस्य तत्रान्यतरस्वभावस्य कल्पनारोपितत्वादित्यपि न कल्पनीयं नित्यानित्यस्वभावयोरन्यतरकल्पितत्वे तदविनाभाविनोपरस्यापि कल्पितत्वप्रसंगात् / न चोभयोस्तयोः कल्पितत्वे किंचिदकल्पितं वस्तुनो रूपमुपपत्तिमनुसरति यतस्तत्र व्यवतिष्ठते वायमिति तदुभयमंजसाभ्युपगंतव्यम्॥ अर्थात् : कथंचित् नित्य की अपेक्षा होने से अर्थ को ध्रुव रूप से जानता है (ध्रुव रूप से यथावस्थित अर्थ को जान लेता है।) तथा संक्लेश और विशुद्धि परिणामों से सहकृत जीव कथंचित् अनित्यपन की विवक्षा करने पर पुनः-पुनः न्यून, अधिक, अध्रुव वस्तु का परिज्ञान करता है॥४२॥ यदि कोई पदार्थ ध्रुव ही होता और कोई पदार्थ अध्रुव ही होता तब तो उस ध्रुव एकान्त या अध्रुवएकान्त पदार्थ में अवग्रह ज्ञान को कहने वाले स्याद्वादी के यहाँ स्व सिद्धांत से बाधा उपस्थित होती किन्तु एक ही पदार्थ को किसी अपेक्षा से ध्रुवस्वरूप और अन्य अपेक्षा से अध्रुवस्वरूप अवधारणा करने वाले अनेकान्तवादी के सिद्धांत में नित्य, अनित्यस्वरूप अर्थ की प्रमाणों से सिद्धि होती है, अतः ध्रुव अध्रुव की अवग्रह में कोई आपत्ति (बाधा) उपस्थित नहीं हो सकती। वस्तुओं को ध्रुव, अध्रुव स्वरूप मानने पर तो सहानवस्था दोष वा प्रसिद्ध विरोध दोष बाधक हैं, ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रमाणों से प्रतीत विषय में विरोध दोष का अवकाश नहीं है क्योंकि सम्पूर्ण वस्तुओं के नित्य, अनित्य आत्मकपना प्रतीत हो रहा है अतः विरोध दोष की सम्भावना नहीं है तथा प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण के द्वारा उन ध्रुव अध्रुव स्वरूप वस्तुओं का अबाधित ज्ञान हो रहा है। अन्यथा (एकान्त रूप से ध्रुव या केवल अध्रुव रूप से) वस्तु की कभी भी प्रतीति नहीं होती है। इस कारण ध्रुव अध्रुव पदार्थ के अवग्रह आदि ज्ञान हो जाने में कोई बाधा उपस्थित नहीं होती है। “परमार्थ से पदार्थ के ध्रुव और अध्रुव दोनों स्वरूपपना ठीक नहीं है। उन दोनों में से एक ध्रुव ही या अध्रुव ही स्वरूप से वस्तु का तदात्मकपना समुचित है। दोनों में से शेष बचा हुआ धर्म कल्पना से आरोपित है; वस्तुभूत नहीं है।" इस प्रकार भी कल्पना नहीं करना चाहिए क्योंकि नित्य अनित्यपनारूप दो स्वभावों में से किसी एक को भी यदि कल्पित माना जाता है तो उसके साथ अविनाभाव रखने वाले दूसरे नित्यपन या अनित्यपन स्वभाव को भी कल्पितपने का प्रसंग आता है। उन दोनों स्वभावों को कल्पित मान लेने पर वस्तु का कोई भी रूप अकल्पित होता हुआ सिद्धि का अनुसरण नहीं कर सकता जिससे कि किसी भी उस वस्तु में यह नि:स्वभाववादी बौद्ध अपनी व्यवस्था कर सके। ___अर्थात् : किसी भी पदार्थ को यदि मुख्य, अकल्पित या अपने स्वभावों में व्यवस्थित नहीं माना जाएगा तो सम्पूर्ण भी जगत् कल्पित हो जाएगा। ऐसी दशा में बौद्ध अपनी स्वयं की सिद्धि भी नहीं कर
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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