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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 317 प्राप्तेरभिधानात्। तथा च रसगंधस्पर्शानां स्वग्राहिभिरिंद्रियैः स्पृष्टिबंधस्वयोग्यदेशावस्थिति: शब्दस्य श्रोत्रेण स्पृष्टिमात्रं रूपस्य चक्षुषाभिमुखतयानतिदूरास्पृष्टतयावस्थितिः। सा च यथा सकलस्य वस्त्रादेस्तथा तदवयवानां च केषांचिदिति तत्परिच्छेदिना चक्षुषा ऽ प्राप्यकारित्वमुपढौकते। स्वस्मिन्नस्पृष्टानामबद्धानां च तदवयवानां कियतां चित्तेन परिच्छेदनात् तावता चानिसृतानुक्तावग्रहादिसिद्धेः किमधिकेनाभिहितेन // ध्रुवस्य सेतरस्यात्रावग्रहादेर्न बाध्यते। नित्यानित्यात्मके भावे सिद्धिः स्याद्वादिनोंजसा // 42 // इन्द्रियों का अर्थ से सम्बन्ध हो जाने पर ही योग्य देश अवस्थान बन सकता है। वैसा होने पर रस, गंध और स्पर्शों की अपने को ग्रहण करने वाली इन्द्रियों के द्वारा स्पर्श कर और बन्ध होकर सम्बन्ध हो जाने पर अपने योग्य देश अवस्थिति है। शब्द की योग्यदेश अवस्थिति तो श्रोत्र इन्द्रिय के साथ केवल स्पर्श हो जाने पर ही मिल जाती है। तथा चक्षु के साथ रूप की योग्यदेश अवस्थिति तो अभिमुख से और अधिक दूर या अतिनिकट नहीं होकर स्पर्श नहीं करती हुई अवस्थिति होना है। अर्थात् - रस, गन्ध और स्पर्श को तो सम्बन्ध करके स्पर्शन, रसना, नासिका इन्द्रियाँ जानती हैं। किन्तु, शब्द का केवल कान से छू जाने पर ही अवग्रह कर लिया जाता है। तथा चक्षु के साथ विषय के छू जाने और बँध जाने की आवश्यकता सर्वथा नहीं है फिर भी इतनी सामग्री अवश्य चाहिए कि दृष्टव्य पदार्थ चक्षु के सन्मुख हो सके। विमुख पदार्थ तत्त्व अधिक दूर के वृक्ष, सुमेरु या अतिनिकटवर्ती अंजन, पलक, तिल को भी चक्षु नहीं देख सकती है अतः योग्य देश में अवस्थित पदार्थ को देखने वाली आँख अप्राप्यकारी मानी जाती है स्पर्शन आदि चार इन्द्रियाँ प्राप्यकारी हैं। - योग्य देश की अवस्थिति जैसे सम्पूर्ण निकले हुए वस्त्र आदि अर्थों के निसृत ज्ञान में सम्भव है, उसी प्रकार उन वस्त्र आदि के टुकड़े सूत आदि कितने ही अवयवों के निकलने पर अनिःसृत ज्ञान में भी पाये जाते हैं। इस प्रकार कुछ अवयवों को देखकर उन अवयवियों का परिच्छेद करने वाली चक्षु के * अप्राप्यकारीपना प्रसिद्ध हो जाता है। अर्थात् - पदार्थों का कथन करने के अवसर पर कुछ अर्थों का कथन नहीं होने पर भी अभिप्राय द्वारा चक्षु से अनुक्त का अवग्रह हो जाता है। प्रतिभाशाली विद्वान् अनिःसृत और अनुक्त सुख, दु:ख इच्छाओं का मन इन्द्रिय से अवग्रह कर लेते हैं। स्व का स्पर्श नहीं करके और बन्ध को प्राप्त नहीं हुए उस विषयी अवयवी तथा उसके कितने ही अवयवों का मन के द्वारा परिच्छेद हो जाता है। बस, उतने से ही अनिसृत, अनुक्त अर्थों के चक्षु और मन के द्वारा अवग्रह आदि प्रसिद्ध हो जाते हैं। अधिक कहने से क्या लाभ? अर्थात् - इस विषय में अधिक कहना व्यर्थ है। यहाँ तक अनिःसृत और अनुक्त का वर्णन किया गया है। अब ध्रुव और अध्रुव का वर्णन करते हैं - इस प्रकरण में ध्रुव पदार्थ के और इतर (अध्रुव) पदार्थ के अवग्रह आदि ज्ञान बाधित नहीं हैं, क्योंकि स्याद्वादियों के यहाँ निर्दोषरूप से नित्यानित्यात्मक पदार्थों में ज्ञप्ति हो रही है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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