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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 313 द्वितीयकल्पनायां तु प्रतीतिविरोधतः स्वयमननुभूतपूर्वेपि बह्वाद्यर्थेवग्रहादिप्रतीते: स्मृतिसहायेंद्रियजन्यत्वासंभवात् तत्र स्मृतेरनुदयात् तस्याः स्वयमनुभूतार्थ एव प्रवर्तनादन्यथातिप्रसंगात् / ततो नेदं बह्वाद्यवग्रहादिज्ञानमवभासनाद्भिन्नं शब्दज्ञानवत्स्मृतिसापेक्षं ग्रहणमिति मंतव्यं / यतो युगपदनेकांतार्थे न स्यात् / भवतु नामधारणापर्यंतमवभासनं तत्र न पुन: स्मरणादिकं विरोधादिति मन्यमानं प्रत्याहबहौ बहुविधे चार्थे सेतरेऽवग्रहादिकम् / स्मरणं प्रत्यभिज्ञानं चिंता वाभिनिबोधनम् // 34 // धारणाविषये तत्र न विरुद्धं प्रतीतितः। प्रवृत्तेरन्यथा जातु तन्मूलाया विरोधतः // 35 // यह ज्ञान क्या स्मृति की अपेक्षा नहीं रखने वाली इन्द्रिय के द्वारा जाना गया है? अथवा स्मृति की सहायता को धारने वाली इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ है। प्रथम पक्ष लेने पर तो स्याद्वादियों का मत सिद्ध होता है क्योंकि स्याद्वाद सिद्धान्त में बहु आदिक अर्थों के ज्ञान को ही अवग्रह, ईहा आदिक ज्ञान स्वरूप से व्यवस्थित (निश्चित) किया है अर्थात् स्मृति की अपेक्षा नहीं कर इन्द्रियों से बहुत, अल्पविध आदि अनेक अर्थों का एक ज्ञान हो जाता है। दूसरे पक्ष की कल्पना करने पर तो प्रतीतियों से विरोध आता है क्योंकि पहले कभी स्वयं अनुभव में नहीं आये हुए बहु आदि अर्थों में अवग्रह आदिज्ञानों की प्रतीति होती है। अपूर्व अर्थों में स्मृति की सहायता प्राप्त इन्द्रियों से उत्पन्न होना तो असम्भव है। उस अदृष्टपूर्व अर्थ में स्मृतिज्ञान की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि स्वयं (पहिले प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि ज्ञानों से) अनुभूत अर्थों में ही “तत् इत्याकारा" “वह था” इस विकल्पवाली स्मृति की प्रवृत्ति होती है, अन्यथा (नहीं अनुभूत किये अर्थ में भी यदि स्मृति की प्रवृत्ति मानी जायेगी तो) अतिप्रसंग दोष आयेगा। ___अर्थात् - अनन्त अज्ञात पदार्थों की धारणाज्ञान नामक संस्कार के बिना भी स्मृति हो जायेगी। परन्तु ऐसा होता नहीं है अत: सिद्ध हुआ कि यह बहु आदिक अनेक अर्थों के अवग्रह आदिक ज्ञान प्रत्येक अर्थ में ज्ञान.रूप से भिन्न नहीं है, तथा शब्दजन्य श्रुतज्ञान जैसे संकेत स्मरण की अपेक्षा सहित अर्थों का ग्राहक है। इसके समान अवग्रह आदि ज्ञान नहीं हैं। अवग्रह आदि तो स्मरणकी अपेक्षा बिना ही हो जाते हैं, यह मान लेना चाहिए अत: अनेक धर्मात्मक अर्थ में या अनेक अर्थों में युगपत् अवग्रह आदिक प्रत्येक ज्ञान की प्रवृत्ति हो जाती है। प्रवृत्ति नहीं होती है, ऐसा नहीं है। उन बहु, बहुविध आदि अर्थों में * धारणापर्यन्त, (अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा तक) ज्ञान हो सकते हैं किन्तु, फिर स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, आदि ज्ञान तो उन बहु आदि विषयों में नहीं हो सकते क्योंकि इसमें विरोध दोष आता है। - इस प्रकार मानने वालों के प्रति आचार्य कहते हैं - बहुत और बहुत प्रकार के तथा उनसे इतर अल्प, अल्पविध आदि अर्थों में अवग्रह आदि धारणा तक ज्ञान होते हैं। उसी प्रकार बहु आदि 12 प्रकार के अर्थों में स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, व्याप्तिज्ञान, अनुमान ज्ञान भी होते हैं। धारणाज्ञान द्वारा विषय किये गए उन बहु आदि अर्थों में स्मरण आदि ज्ञानों की प्रतीति का विरोध नहीं है। अन्यथा (धारणा किये गये बहु आदिक अर्थों में यदि स्मृति आदि की प्रवृत्ति नहीं मानी
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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