________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 312 चित्रव्यवहारप्रसंगतः क्वचित्पुनरेकानेकस्वभावभावार्थित्वाच्चित्रव्यवहारोपीति नैकमेव किंचिच्चित्रं नाम यत्र नियतं वेदनं स्यात्प्रत्यर्थवशवर्तीति॥ योगिज्ञानवदिष्टं तद्बह्वाद्यर्थावभासनम् / ज्ञानमेकं सहस्रांशुप्रकाशज्ञानमेव चेत् // 31 // तदेवावग्रहाद्याख्यं प्राप्नुवत् किमु वार्यते। न च स्मृतिसहायेन कारणेनोपजन्यते // 32 // बह्वाद्यवग्रहादीदं वेदनं शाब्दबोधवत् / येनावभासनाद्भिन्नं ग्रहणं तत्र नेष्यते // 33 // ____ यो ह्यनेकत्रार्थेक्षावभासनमीश्वरज्ञानवदादित्यप्रकाशनवद्व्याचक्षीत न तु तद्ग्रहणं स्मृतिसहायेनेंद्रियेण जनितं तस्य प्रत्यर्थिवशवर्तित्वात्। स इदं प्रष्टव्यः किमिदं बह्वाद्यर्थे अवग्रहादिवेदनं स्मृतिनिरपेक्षिणाक्षण जन्यते स्मृतिसहायेन वा? प्रथमपक्षे सिद्धं स्याद्वादिमतं बह्वाद्यर्थावभासनस्यैवावग्रहादिज्ञानत्वेन व्यवस्थापनात् / एक है, इस प्रकार एकपने का व्यवहार और अनेकपन की अभिलाषा होने के कारण किन्हीं वस्तुओं में, अनेकत्व व्यवहार मनुष्यों के द्वारा विस्तृत किया जाता है। इसलिए सर्वत्र और सर्वदा सर्व वस्तुओं में चित्र व्यवहार का प्रसंग होने के कारण पुनः कहीं अनेक आकारवाली वस्तु में युगपत् एक स्वभाव और अनेक स्वभावों के सद्भाव की अभिलाषुकता हो जाने से चित्रपने का व्यवहार भी प्रसिद्ध है। अर्थात् विवक्षावश चित्रपने की प्रचुरता से किसी ही विशेष वस्तु में चित्रपने का व्यवहार होता है। इसलिए सिद्ध हुआ कि एक ही कोई पदार्थ चित्र ही नहीं है जिसमें कि नियतरूप से एक ज्ञान प्रत्येक अर्थ के अधीन होकर वर्तने वाला हो सके अर्थात् चित्र पदार्थ किसी अपेक्षा से अनेक हैं उनमें एक ज्ञान हो रहा है। सर्वज्ञ योगी के ज्ञान समान वह ज्ञान बहु, बहुविध आदि अर्थों का प्रकाशने वाला इष्ट है। सहस्रकिरण वाले सर्य के प्रकाश समान एक ज्ञान ही अनेक का प्रतिभास कर देता है। इस प्रकार वैशेषिकों के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि तब तो अवग्रह नाम को प्राप्त वही अनेकग्राही एक ज्ञान क्यों निषेध किया जा रहा है? शब्दजन्य ज्ञान शाब्दबोध करने पर पूर्व-पूर्व समयों के उच्चारित होकर नष्ट होते जा रहे और पहले-पहले के वर्गों की स्मृति को सहाय पाकर अन्तिम वर्ण का हुआ श्रवण ही शाब्दज्ञान करा देता है, उसी प्रकार एक-एक ज्ञान द्वारा पहले देखे गये एक-एक अनेक अर्थों की स्मृतियाँ आत्मा में उत्पन्न हो जाती हैं, उन स्मृतियों की सहायता पाकर इन्द्रियजन्य अन्तिमज्ञान बहु आदि अनेकको जान लेता है। यह कहना भी ठीक नहीं है. क्योंकि यह बह आदिक अर्थों का अवग्रह आदिक ज्ञान शाब्दबोध के समान स्मतिसहकत कारण से उत्पन्न नहीं होता है, जिससे कि वहाँ अवभास से भिन्न ग्रहण इष्ट नहीं किया जाए। स्मृति की अपेक्षा से रहित होकर एक ज्ञान बहु आदिक अर्थों को जान लेता है॥३१,३२,३३॥ वैशेषिक - युगपत् अनेक पदार्थों को जानने वाले ईश्वरज्ञान के समान या सूर्यप्रकाश के समान इन्द्रियजन्य एक ज्ञान भी अनेक अर्थों में रहता है किन्तु उन अनेक पदार्थों का ग्रहण युगपत् नहीं होता है, क्योंकि स्मृति की सहायता को प्राप्त कर इन्द्रियों से वह ज्ञान उत्पन्न हुआ है। प्रत्येक अर्थ के आधीन होकर जानने वाला होने से वह ज्ञान एक ही समय में अनेक को नहीं जान सकता है। जैन - इस प्रकार कहने वाला नैयायिक पूछने योग्य है कि बहु, बहुविध आदिक अर्थों में रहने वाला अवग्रह, ईहा आदि स्वरूप