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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 311 तस्यास्खलत्प्रत्ययविषयत्वेन पारमार्थिकत्वेन नीलतरत्वादेरपि रूपविशेषस्य पारमार्थिकत्वं युक्तमन्यथा नैरात्म्यप्रसंगात्। नीलतरत्वादिवत्सर्वविशेषाणां प्रतिक्षेपे द्रव्यस्यासंभवात्। ततो द्रव्यवद्गुणादेरनेकस्वभावत्वं प्रत्ययाविरुद्धमवबोद्धव्यम् / / नन्वनेकस्वभावत्वात्सर्वस्यार्थस्य तत्त्वतः। न चित्रव्यवहारः स्याज्जैनानां क्वचिदित्यसत् // 29 // सिद्धे जात्यंतरे चित्रे ततोपोद्धृत्य भाषते। जनो ह्येकमिदं नाना वेत्यर्थित्वविशेषतः॥३०॥ सिद्धेप्येकानेकस्वभावे जात्यंतरे सर्ववस्तुनि स्याद्वादिनां चित्रव्यवहाराहें ततो योद्धारकल्पनया क्वचिदेकत्रार्थित्वादेकमिदमिति क्वचिदनेकार्थित्वादनेकमिदमिति व्यवहारो जनैः प्रतन्यत इति सर्वत्र सर्वदा आदि की अपेक्षा रखने वाले एक द्रव्य के आश्रित महत्त्व आदिक धर्म माने जाते हैं। अर्थात्-आम की अपेक्षा आमला छोटा है और आँवले से इलाइची छोटी होती है। इस प्रकार अन्य पदार्थों की अपेक्षा से अणुत्व, महत्त्व, दीर्घत्व, ह्रस्वत्व, परिमाण वैशेषिकों ने स्वयं स्वीकार किये हैं। जैसे उस पृथक्त्व, महत्त्व आदि की बाधा रहित ज्ञान के विषय ध्रुव रूप से प्रतीति होने से पारमार्थिक हैं, उसी प्रकार रूप के नील, नीलतर, नीलतम आदि विशेष स्वभावों को भी वस्तुभूतपना युक्त मान लेना चाहिए / अन्यथा (नैमित्तिक भावों को यदि स्व का भाव नहीं माना जायेगा तो) नील, नीलतरत्व के समान वस्तुओं के स्वभाव रहितपने का प्रसंग आयेगा। नील, नीलतर आदि के समान सम्पूर्ण विशेषों का यदि निराकरण करेंगे तो द्रव्य की भी सिद्धि असम्भव हो जाएगी। अर्थात्-स्वभावों के बिना द्रव्य का आत्मलाभ असम्भव है अत: सिद्ध हुआ कि द्रव्य के समान गुण, पर्याय कर्म के भी अनेक स्वभावों से सहितपना किसी भी प्रातीतिक ज्ञान से विरुद्ध नहीं है, ऐसा समझना चाहिए। . शंका : सम्पूर्ण अर्थों को यथार्थरूप से जब अनेक स्वभाव सहितपना सिद्ध हो जाता है तब तो जैनों के किसी भी विशेष पदार्थ में चित्रविचित्रपने का व्यवहार नहीं हो सकता। समाधान : इस प्रकार कहना प्रशंसनीय नहीं है, क्योंकि विभिन्न दूसरी जाति वाले चित्र पदार्थ के सिद्ध हो जाने पर विशेष चित्रित पदार्थ की पृथक्भाव कल्पना कर व्यवहारी मनुष्य विशेष-विशेष प्रयोजनों का साधक होने से उन अर्थों में से किसी को यह एक है और किन्हीं को ये अनेक हैं, इस प्रकार कह देता है। ___भावार्थ : प्रत्येक पदार्थ से अनेक प्रयोजन सध सकते हैं। किन्तु अर्थक्रिया के अभिलाषी जीव को उस वस्तु से जो विशेष प्रयोजन प्राप्त करना है तदनुसार एकपना, अनेकपना, चित्रपना, विचित्रपना व्यवहृत कर लिया जाता है॥२९,३०॥ अर्थात् वस्तु अनेक धर्मात्मक है; उनमें जिसधर्म की विवक्षा होती है, वक्ता उसी का कथन करता है। एक स्वभाव और अनेक स्वभावों के धारक सम्पूर्ण वस्तुओं के जात्यन्तर अनेकांतात्मकपने की सिद्धि हो जाने पर यद्यपि सम्पूर्ण ही वस्तुएँ स्याद्वादियों के यहाँ चित्रपने के व्यवहार करने योग्य है; फिर भी एक स्वभाव वाले और अनेक स्वभाव वाले इन दो जातियों से भिन्न जात्यन्तर वस्तुओं से किसी विशिष्ट वस्तु की पृथक् भाव-कल्पना करके किसी ही विशेष एक वस्तु में इच्छावश यह
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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