________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 314 न हि धारणाविषये बह्वाद्यर्थे स्मृतिविरुध्यते तन्मूलायास्तत्र प्रवृत्तेर्जातुचिदभावप्रसंगात्। नापि तत्रं स्मृतिविषये प्रत्यभिज्ञायास्तत एव / नापि प्रत्यभिज्ञाविषये चिंतायाचिंताविषये वाभिनिबोधस्य तत एव प्रतीयते च तत्र तन्मूला प्रवृत्तिरभ्रांता च प्रतीतिरिति निश्चितं प्राक् // क्षणस्थायितयार्थस्य निःशेषस्य प्रसिद्धितः। क्षिप्रावग्रह एवेति केचित्तदपरीक्षितम् // 36 // स्थास्नूत्पित्सुविनाशित्वसमाक्रांतस्य वस्तुनः। समर्थयिष्यमाणस्य बहुतोबहुतोग्रतः // 37 // कौटस्थ्यात्सर्वभावानां परस्याभ्युपगच्छतः। अक्षिप्रावग्रहैकांतोप्येतेनैव निराकृतः॥३८॥ जाएगी तो) उन धारणादि को मूलकारण मानकर उत्पन्न हुई लोकप्रवृत्ति का विरोध हो जाएगा। अर्थात् - धारणा आदि के अनुसार बहु आदिक अर्थों में कभी भी प्रवृत्ति नहीं हो सकेगी // 34-35 // ___ संस्काररूप धारणाज्ञान का विषयभूत बहु, बहुविध आदि अर्थों में स्मरण हो जाना विरुद्ध नहीं है।' यदि धारणा द्वारा ज्ञात विषय में स्मृति होना विरुद्ध माना जायेगा तो उन विषयों में धारणा को मूल कारण मानकर उत्पन्न हुई प्रवृत्ति को कभी भी नहीं होने का प्रसंग आएगा। अर्थात् - धारणामूलक स्मृति के द्वारा ऋण लेना-देना, स्थानान्तर में जाकर अपने घर लौटना आदि अनेक प्रवृत्तियाँ देखी जाती हैं उनके अभाव का प्रसंग आयेगा। उस स्मरण ज्ञान द्वारा ज्ञात विषयों में प्रत्यभिज्ञान की प्रवृत्ति होना भी विरुद्ध नहीं है। तथा स्मृति के कारण प्रत्यभिज्ञान द्वारा जान लिये गये विषय में चिन्ताज्ञान की, और चिन्ताद्वारा विषय किये गए अर्थ में अनुमानज्ञान की प्रवृत्ति भी विरुद्ध नहीं है क्योंकि उन ज्ञेय विषयों में व्याप्तिज्ञान रूप चिन्ता की प्रतीति होती है। अर्थात्-जहाँ धुआँ होता है, वहाँ अग्नि होती है-जो कृतक है, वह अंनित्य है इत्यादि व्याप्तिज्ञान प्रत्यभिज्ञेय विषय में प्रतीत होता है और व्याप्ति ज्ञान से जाने जा चुके विषय में यह पर्वत अग्निमान है, यह घट अनित्य है, इत्यादिक अनुमान ज्ञान भी देखे जाते हैं। इन पूर्व के ज्ञानों को मूल कारण मानकर उत्पन्न हुई प्रवृत्तियाँ अभ्रान्त निर्णीत होती हैं। इसका पूर्व में कथन कर दिया गया है। बौद्ध - सम्पूर्ण घट, पट, आकाश, आत्मा आदि अर्थों की एकक्षण तक ही स्थायीपने की प्रसिद्धि है अतः शीघ्र अवग्रह होना तो ठीक है, किन्तु अक्षिप्र अवग्रह किसी का नहीं हो सकता है क्योंकि एकक्षण से अधिक कालतक कोई भी पदार्थ स्थिर नहीं रहता है। इसके प्रत्युत्तर में ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ध्रौव्य, उत्पाद और व्यय से युक्त वस्तु का बहुत-बहुत युक्तियों से आगे ग्रन्थ में समर्थन करने वाले हैं। अर्थात् - वस्तु कालान्तर में रहने वाली होने से ध्रुवरूप है। यद्यपि सूक्ष्म ऋजुसूत्रनय की दृष्टि से एक पर्याय क्षणतक ठहरती है, तथापि व्यवहार नय या सकलादेशी प्रमाण द्वारा वस्तु अधिक काल तक ठहरती हुई जानी जाती है अतः ध्रुवरूप से वस्तु के अवग्रह, ईहा आदि ज्ञान हो सकते हैं / / 36-37 // सम्पूर्ण पदार्थ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इन तीन स्वभावों से युगपत् समालीढ़ हैं। अतः सम्पूर्ण पदार्थों को कूटस्थ नित्य होने के कारण अक्षिप्र अवग्रह को ही स्वीकार करने वाले कापिल के अक्षिप्र अवग्रह एकान्त का भी इस कथन के द्वारा खण्डन कर दिया गया है॥३८॥