________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 304 तत्तद्विषयबह्वादेः समभ्यर्हितता तथा। बोध्यं तद्वाचकानां च क्रमनिर्देशकारणं // 13 // बह्वादीनां हि शब्दानामितरेतरयोगे द्वंद्वे बहुशब्दो बहुविधशब्दात्प्राक् प्रयुक्तोभ्यर्हितत्वात् सोपि क्षिप्रशब्दात् सोप्यनिःसृतशब्दात्सोप्यनुक्तशब्दात् सोपि ध्रुवशब्दात्। एवं कथं शब्दानामभ्यर्हितत्वं? तद्वाच्यानामर्थानामभ्यर्हितत्वात् / तदपि कथं ? तद्ग्राहिणां ज्ञानानामभ्यर्हितत्वोपपत्तेः। सोपि ज्ञानावरणवीर्यांतरायक्षयोपशमविशेषप्रकर्षादुक्तविशुद्धिप्रकर्षस्य परमार्थतोभ्यर्हितस्य भावादिति। तदेव यथोक्तक्रमनिर्देशकस्य कारणमवसीयते कारणांतरस्याप्रतीतेः॥ ज्ञान करना आदरणीय है अत: क्षिप्र के पूर्व में बहुविध कहा है। उसी प्रकार क्षिप्र का ज्ञान भी अनिःसृत ज्ञान से श्लाघ्य है। अनिःसृत पदार्थ को बताने की अपेक्षा शीघ्र बताने पर अधिक लब्धांक प्राप्त हो जाते हैं। उस अनुक्तज्ञान से अनिःसृत का ज्ञान पूजनीय है, क्योंकि छल कपटपूर्ण जगत् में अनुक्त पदार्थ को समझना जितना सरल है, उतना इन्द्रियों द्वारा अनिःसृत पदार्थ का समझना सुकर नहीं है। वह अनुक्त ज्ञान भी किसी कारणवश ध्रुवज्ञान से अधिक अर्चनीय है। अचलित को जानने की, मायावियों के अनुक्त अभिप्रेतों का या विद्वानों की गूढ़ चर्चा का पता पा लेना कठिन है, अतः अल्प स्वरपना, सुसंज्ञापन आदि का लक्ष्य न रखकर पूज्यता का विचार करते हुए आचार्य ने बहु, बहुविध आदि सूत्र में पदों का क्रम कहा है॥११-१२॥ उन बहु, बहुविध आदि को विषय करने की अपेक्षा से बहु आदि के ज्ञानों को अधिक पूजनीय समझ लेना चाहिए। तथा उन बहु आदिक के वाचक शब्दों के भी क्रम से निर्देश करने का कारण समभ्यर्हितपना जानना चाहिए॥१३॥ अर्थात् समास में जो अल्प स्वर वाला होता है उसका न्यास प्रथम होता है, अधिक स्वर वालों का बाद में, उस अपेक्षा बहु आदि का क्रम नहीं समझना अपितु पूज्यता की अपेक्षा ऐसा जानना। बहु, बहुविध आदि शब्दों का इतरइतरयोग नाम का द्वन्द्व समास होने पर बहुविध शब्द से पहले बहुशब्द प्रयोग किया गया है, क्योंकि विशेष-विशेष अनेक व्यक्तियों को कहने वाला वह बहु शब्द अनेक जातियों को कहने वाले बहुविध शब्द से अधिक पूज्य है और वह बहुविध भी क्षिप्रशब्द से अधिक अर्चनीय है तथा वह क्षिप्र शब्द भी अनिःसृत से और वह अनिःसृत भी अनुक्त शब्द से तथा वह अनुक्त भी ध्रुवशब्द से अधिक अर्चनीय है। प्रश्न : मुख, तालु आदि अथवा चेतनप्रयत्न द्वारा उत्पन्न हुए शब्दों में पूज्यपना कैसे है? उत्तरः उन शब्दों के वाच्य अर्थों की परिपूज्यता होने से वाचक शब्द भी पूज्य हो जाते हैं / शंका : उन वाच्य अर्थों को पूज्यपना क्यों है? समाधान : उन महान् अर्थों के ग्रहण करने वाले होने से शब्दों में अतिपूज्यपना है। अर्थात् आत्मा का गुण ज्ञान परमपूज्य है। उसमें जो प्रकृष्ट पदार्थ आदरणीय होकर विषय हो रहे हैं, वे भी पूज्य हो जाते हैं। विषयी धर्म को विषय में आरोपित कर लिया जाता है, जैसे कि जड़ घट को प्रत्यक्षज्ञान का विषय होने से प्रत्यक्ष कह देते हैं। शंका : वह ज्ञान भी पूज्य क्यों है? ..