________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ** 303 निःशेषपुद्गलोद्गत्यभावाद्भवति निःसृतः। स्तोकपुद्गलनिष्क्रांतेरनुक्तस्त्वाभिसंहितः॥७॥ निष्क्रांतो निःसृतः कात्या॑दुक्तः संदर्शितो मतः। इति तद्भेदनिर्णीतेरयुक्तैकत्वचोदना // 8 // __ अनिःसृतानुक्तयोनिःसृतोक्तयोश्च नैकत्वचोदना युक्ता लक्षणभेदात्। कुतो बह्वादीनां प्राधान्येन तदितरेषां गुणभावेन प्रतिपादनं न पुनर्विपर्ययेणेत्यत्रोच्यते;तत्र प्रधानभावेन बह्वादीनां निवेदनं / प्रकृष्टावृत्तिविश्लेषविशेषात् नुः समुद्भवात् // 9 // तद्विशेषणभावेन कथं चात्राल्पयोग्यतां। समासृत्य समुद्भूतेरितरेषां विधीयते॥१०॥ अथ बह्वादीनां क्रमनिर्देशकारणमाह;बहुज्ञानसमभ्यय॑ विशेषविषयत्वतः / स्फुटं बहुविधज्ञानाजातिभेदावभासिनः // 11 // तत्क्षिप्रज्ञानसामान्यात्तच्चानिःसृतवेदनात् / तदनुक्तगमात्सोपि ध्रुवज्ञानात्कुतश्चन // 12 // हो गया है, वह नि:सृत है। जलनिमग्न हाथी की ऊपर निकली हुई सूंड को देखकर हाथी का ज्ञान अनि:सृत मतिज्ञान है और बाहर खड़े हुए हाथी का ज्ञान निःसृत है यह इनमें भेद है।।७-८।। अनिःसृत और अनुक्त तथा निःसृत और उक्त में एकपन का कुतर्क उठाना युक्त नहीं है, क्योंकि इनके लक्षण भिन्न-भिन्न हैं। ___बहु, बहुविध आदि का प्रधानता से क्यों प्रतिपादन किया गया है? और अल्प, अल्पविध आदि इतरों का प्रतिपादन गौणरूप से क्यों किया गया है? फिर विपरीत ही प्रतिपादन क्यों नहीं किया गया? इस प्रकार जिज्ञासा होने पर श्री विद्यानन्द आचार्य कहते हैं.. इस सूत्र में जीव के प्रकृष्ट ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होने के कारण बहु आदि का प्रधानरूप से निवेदन किया है और उन बहु आदि के विशेषण होकर के तथा अल्पयोग्यता का आश्रय लेकर इतर अल्प, अल्पविध आदि के ज्ञान आत्मा में उत्पन्न हो जाते हैं, यह समाधान किया गया है। भावार्थ : बहु, बहुविध, शीघ्र, अनिसृत नहीं कहा गया (अनुक्त) अविचलित (ध्रुव) इन पदार्थों की ज्ञप्ति करने के लिए उत्कृष्ट क्षयोपशम से ही निर्वाह हो सकता है। विशेष बुद्धिमान पुरुष बहु आदि को समझकर उस बुद्धि से अल्प आदि पदार्थों को भी समझ लेता है। किन्तु अल्प आदि को जानने वाली बुद्धि द्वारा शेष बचे हुए बहुतों का ज्ञान नहीं हो सकता है। इसलिए बहु आदि को मुख्यता से ग्रहण किया गया है // 9-10 // अब बहु, बहुविध आदि के यथाक्रम से निर्देश करने के कारण को आचार्य कहते हैं जाति का आश्रय कर भेदों का कथन करने वाले बहुविध पदार्थों के ज्ञान की अपेक्षा विशेष रूप से अधिक पदार्थों को विषय करने वाला बहु का ज्ञान पूजनीय है। यह स्पष्ट प्रतीत हो रहा है। अर्थात् जाति का अवलम्बन कर पदार्थों का जानना उतना स्पष्ट नहीं है, जितना कि व्यक्तियों का आश्रय कर पदार्थों का जानना स्पष्ट है अत: व्यक्तियों का आश्रय कर पदार्थों का जानना विशद या आदरणीय है अतः बहुविध से पहले बहु का कहना योग्य है तथा सामान्य रूप से शीघ्र पदार्थ को जानने की अपेक्षा उस बहुविध का